गर्मी में फिटनेस
इस बीच चार गर्मियां और बीत गईं. उतने
ही बरसात और सर्दियां भी. मौसम कोई भी रहा, सरगर्मी बनी रही. वादों और दावों के
बीच रस्साकस्सी में खूब चिंगारियां निकलीं. बातों और हक़ीक़तों के विपरीत ध्रुवों के
बीच घर्षण से भारी ताप पैदा हुआ. क़र्ज़-माफ़ी-बीमा के खंभों पर आत्महत्या के तार की
शार्ट-सर्किट से खूब चिंगारियां निकलीं. पेट्रोल-डीजल की कीमतों से लपटें सी
निकलती रहीं, जिसके ताप में झुलस कर रुपया मुरझाया रहा. बैंकों के वाल्ट में अंदर
ही अंदर कुछ ऐसा सुलगा कि अरबों रुपए भाप बन कर उड़ गए. सरकारी हवन कुंड में कैशलेस
समिधा प्रज्ज्वलित होने के बाद जीएसटी की आहुति डालते ही अग्नि धधक उठी और सब ओर
विकास का धुँआ फ़ैल गया. कोलतार पिघल कर हाई-वे एक्सप्रेसवे पर पसर गए. इसी धुंध में नये विकास-मॉडल के लावे से
बड़े-बड़े प्रोजेक्ट विनिर्मित होने लगे. इस कायनात में जो कुछ बना है गर्मी से ही
बना है. सो अब भी बन रहा है.
राजनीतिक सरगर्मी भी उठान पर बनी रही.
चुनाव के अखाड़ों में येन-केन प्रकारेण विरोधी को पटखनी देकर जीत की मशालों का
जुलूस निकला. अविजित इलाकों में संगठन के करंट दौडाए गए. ठप पड़ी अधबनी विधानसभाओं
को खरीदे हुए समर्थन-जेनरेटरों से चार्ज कर चालू किया गया. सामाजिक परमाणुओं के
बीच प्रतिक्रियात्मक घर्षण से घनघोर ताप पैदा होता रहा. एक सुगबुगाती आतंरिक ऊर्जा
से परमाणु बम की संभावना तैयार कर ली गई. विध्वंस से निर्माण का फार्मूला भी तो गर्मी
से ही होकर गुजरता है.
इतने गर्मागर्म माहौल में कुदरत की
गरमी और आ मिली है. सोने पे सुहागा कह लें या नीम पे करेला, हालत पस्त करने वाली
गर्मियां हैं. जनता की गर्मजोशी कहीं चित पड़ी औंघा रही है. हौसलों के मुंह पर
छींटें मारो तो भी कुनमुना के करवट ले लेते हैं. गधे भी अमराई की छांह ढूंढ रहे.
शेर शिकार छोड़ लेटा हांफ रहा है. गर्मी भीतर भी कम नहीं. पेट में धधकती आग है,
ग़ुरबत के गर्म आंसुओं का सैलाब है, तपती हुई साँसें हैं और खुली धूप में जलता हुआ
जिस्म है. एकदम गर्मागर्म रेसिपी है मेहनत से ज़िंदा रहने की ज़द्दोजहद की,
फरमाबरदारी की. भीतर बाहर की गर्मी से क्रिस्प, कुरकुरा, खस्ता, जानदार. फिटनेस
में अव्वल, एकदम टनाटन, खरीद लाओ - देश-निर्माण में लगाओ. देश भी फिट.
गर्मी इधर भी कम नहीं. मिज़ाज में
गर्मी, दिल महत्वाकांक्षाओं से धधकता हुआ, खून में गर्मी सब हथिया लेने की हवस की,
आँखों में शोले, भाषणों में आग, अहम् का कभी भी फट पड़ने वाला गर्म गुब्बारा.
माबदौलत क्या हैं, एक आफताब का टुकड़ा हैं. ठंढे पस्त जीवों पर एक किरण पड़ती है तो
बेचारे बिलबिला उठते हैं. प्रकट में बेशक विनम्रता का ठंढा लबादा ओढ़े मुस्कराते
हैं. गर्मजोशी बराबर वालों के बीच बनी रहती है. अगले चुनाव की वर्जिश चालू है, भरपेट
रातिब खाए कसे घोड़ों की तरह दौड़ में आगे निकलने को कृतसंकल्प ये कर्मवीर ठंढे
कमरों में योग-ओ-जिम से बदन में गर्मी बढ़ा रहे हैं. अपनी फिटनेस को चुनौती बना कर
ललकार रहे हैं. विरोधियों में हीन भावना भरते हुए. देश को भी फिट रहने की प्रेरणा
देते हुए.
तो सिद्ध हुआ कि, गर्मी से ही फिटनेस
है. आईये अपने भीतर-बाहर की गर्मी में खुद को तपा कर अपने फिटनेस का प्रमाण दें.
देश का राजनितिक- सामाजिक तापमान बाधाएं. उनके लक्ष्य का फिट भारत बना कर देना है
कि नहीं!
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