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नया ताज़ा व्यंग्य

उलझे हुए तार और संस्कार   उनकी बातों से जो मैं समझा उसका लब्बोलुवाब ये था कि शर्म एक भारी-सी चीज़ होती है जो आँखों की पलकों पर लटक कर उन्हें झुकने पर मज़बूर कर देती है. उन्होंने बताया कि आजकल उनकी पत्नी की आँखे बड़ी-बड़ी खुली रहती हैं और आपसी तक़रारों के वक़्त उनकी आँखों से दो-दो हाथ करती रहती हैं. इससे वे इस नतीजे पर पहुँच गए हैं कि पत्नी की आँखों की शर्म मर गई है या कम से कम वहां से हट ज़रूर गयी है. मैं खुद शर्मिदा हुआ कि वे अपनी निजी पत्नी की आँखों की बेशर्मी का ज़िक्र मुझसे कर रहे थे. फिर चिंता भी हुई कि स्थिति वाक़ई नाज़ुक है, तभी ऐसा करते हुए वे खुद शर्मिंदा नहीं हुए. मुझे याद आया कि उनकी ज़िन्दगी में ताज़ा-ताज़ा आई पत्नी इतनी झुकी-झुकी नज़रों वाली थी कि वे अक्सर गुनगुना उठते थे – “झुकी-झुकी सी नज़र, बेक़रार है कि नहीं!” पिछले दसेक साल उन्होंने उन पलकों में पूरे हौसले से उठकर पूरी दुनिया को नज़रें फाड़-फाड़ कर देखने का आत्मविश्वास भरने को अपना मिशन बनाया हुआ था. अपनी संगिनी का जो अख्श उनके मन में था वो महानगर की उस बोल्ड लड़की का था जो उन्हीं के शब्दों में लेटेस्ट फैशन में लिपटी अपने बॉय-फ्र