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Showing posts from October, 2013

अंधेर नगरी रिटर्न्स - ये नाटक का शीर्षक था.

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भारतेंदु का क्लासिक'अंधेर नगरी - चौपट राजा' हर युग में प्रासंगिक है. आप शब्द और सन्दर्भ बदल दीजिये, उन्हीं घटनाक्रमों में सब नया लगाने लगता है. इसका रूपांतरण करते हुए मुझे सचमुचबड़ा मज़ा आया. जिस पात्र को पकड़ता उसका सामयिक हमशक्ल सामने होता. महंत और उसके चेलों में न चाहते हुए भी आज के बाबा-चेलों का स्वर आ जाता है. राजा का ध्यान आते ही कुछ ख़ास अक्श बनते हैं. मूर्खता और कठपुतलीपन में थोड़ी सी नपुंसकता मिला कर हमारा आज का राजा तैयार था. रहा मंत्री तो सदियों से सारे खेल वही रचता आया है. निर्देशक राजीव मेहरा ने इन सब चरित्रों के रूप गढ़े और एक सदी से भी पुराने नाटक को एकदम नया सन्दर्भ मिल गया.   नाटक गीत-संगीत से भरपूर है. मूल गीतों में भ्रष्टाचार की जो परतें खुलती हैं उसी में वर्तमान दौर की झलकियाँ भी हैं. मैंने गीतों को ताज़ा प्रसंगों से जोड़ भर दिया. अमित घोरपडे ने उनकी नई धुनें बना दीं और रिहर्सल में पात्रों की जुबां पर शब्द लोकप्रिय गीतों की तरह थिरकने लगे. कुल मिला  कर इस नाटक को प्रस्तुत करने में बेहद मज़ा आया और कुछ सार्थक करने का अहसास भी रहा. कुछ झलकियाँ यहाँ पर

एक पुस्कालय को भीतर से देख कुछ ऐसा महसूस हुआ - हाल में "लफ्ज़" में प्रकाशित मेरी व्यंग्य रचना !

मुक्ति -कमलेश पाण्डेय कवितावली ने एक लम्बी अंगड़ाई ले कर अपने पन्नों को पंखों की मानिंद फडफड़ाया तो धूल का गुबार सा उड़ा. उपन्यासचंद छींकने लगे और ग्रंथावली चाची को तो खांसी का दौरा ही पड़ गया. कहानी संग्रह राय ने फ्लैप से मुंह ढापते हुए कहा – “ऊब झाड़ने का ये ढंग ठीक नहीं. अगर हम  सब लोग एक साथ पन्ने फडफड़ाने लगे तो धूल की आंधी आ जायेगी. यहाँ शान्ति से पड़े तो हैं कम से कम, वो भी मुहाल हो जायेगा. “लानत है ऐसी शान्ति पर. बरसों बीत गए, पन्ने पलट लेना तो दूर, किसी ने हमारी गर्द तक नहीं झाड़ी. किसी ड्राइंग –बेडरूम या पार्क में किसी कोमल हाथ से पलटा जाना तो सपना ही है. अब तो यही एक आखिरी इच्छा रह गई है कि दीमकें या कबाड़ी वाले आएं और हमें मुक्ति दिला दें”, ठंढी आहों के बीच दबी समीक्षाबाई की आवाज़ आई. नाम से पुस्तकालय और आकार और चरित्र से किताबों का ये गोदाम, कैदखाना या कब्रगाह एक सरकारी दफ्तर के तहखाने का हिस्सा है. जंग खाए लोहे के रैकों में तरतीब से लगी हज़ारों पुस्तकें, कैटलोग-बॉक्स, एक गोलाकार मेज़ के गिर्द चार उधडी हुई सी कुर्सियां और एक कोने में कम्प्यूटर-युक्त गोदामाध्य

हाल ही में प्रकाशित एक व्यंग्य रचना

अभिव्यक्ति सीधा-सादा दृश्य है. एक भला-सा दिखता आदमी दिल्ली की चौडी-सी सड़क के किनारे पानादि के खोखे से ठंढे पानी की एक बोतल खरीद कर फुटपाथ पर खडा है. उसके सामने एक रिक्शा रुकता है. सवारी रिक्शेवाले को दस का नोट पकड़ा कर जैसे ही हटती है , वह एकदम कूद कर रिक्शे पर चढ जाता है और पानी की बोतल का सील खोलते हुए रिक्शेवाले से कहता है-जल्दी चल! तेज धूप में पसीने से तरबतर रिक्शेवाला एक बार मुड कर सूखी आँखों से उसके मुंह में बोतल से गिरती धार को देखता है और पैडल पर पैर मार देता है.   पास के बस-स्टॉप पर तीन जोडी मर्मज्ञ आँखें इस दृश्य की तस्वीर उतार कर तीन संवेदनशील हृदयों को भेजती हैं जो आगे उन्हें तीन सर्जक मस्तिष्कों को फारवर्ड कर देते हैं. एक कोमल सा ह्रदय जो है , सो एक उदीयमान युवा कवि का है , दूसरा धीर-गंभीर-सा दिल एक नवांकुर कहानीकार का और तीसरा बेचैन और भभकता हुआ दिल एक व्यंग्यकार का है. शाम को वह सीधा-सादा दृश्य इन प्रखर खरादों पर चढ कर रचना का रूप ले लेता है. चूंकि रिक्शेवाला अपनी सवारी समेत दृश्य के कनवास से बिना कोई अंतिम प्रतिक्रिया दिए निकल भागा है , तीनों अपनी अपनी कल्पनाओं