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हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका "हरिगंधा" के व्यंग्य विशेषांक में प्रकाशित मेरी व्यंग्य रचना

गरीबों की सुनो गरीबी एक जिद्दी सी चीज़ है जो हटाये नहीं हटती. यहाँ तक कि सरकारों की ‘गरीबी हटाओ’ के हुंकारों से भी नहीं डरती. जहां होती है, वहीं जमी रहती है, बल्कि थोड़ा-थोड़ा पिघल कर आस-पास रिसती भी रहती है. आजादी के वक़्त देश में बहुत-सी गरीबी पड़ी थी, पर तब सरकार के पास ढेरों दूसरे काम पड़े थे. योजनायें बनाना उनमें प्रमुख था. सरकार समझती थी कि योजनाओं की मदद से संपन्न होने वाले बड़े-बड़े कामों से जो समृद्धि पैदा होती है उसकी तलछट से गरीबी भी हटती जाती है. जैसे एक बड़ा बाँध बनाने से उसके डूब-क्षेत्र में रहने वाले गरीब हटा दिए जाते हैं तो गरीबी भी उनके साथ ही हट जाती है. कुछ दशकों के बाद पता चला कि गरीबी हट तो गयी थी पर उन ग़रीबों के साथ वहीं जाकर बस गयी जो अब भी गरीब ही हैं. तब विशेष तौर पर ‘गरीबी हटाओ’ का हुंकार-भरा नारा दिया गया. तब से सरकारें गरीबी हटाने में जुटी हैं, बल्कि अब तो गरीबी-उन्मूलन की बात करने लगी हैं. गरीबी हटाने के सिलसिले में सरकार ग़रीबों की गिनती करवाने के अलावा गरीबी की नाप-जोख भी करवाती है. सरकारी विद्वान गरीबी की परिभाषा तय कर एक लक्षमण-रेखा सी खींच देते हैं. इस