ब्लॉग "बैठे ठाले" के होली अंक में मेरा ये ताज़ा व्यंग्य.
कबीरा कहे.... ईमान से , ईमानदारी की खटिया अभी नब्बे डिग्री तक नहीं खड़ी हुई. साधो! कुछ दिन हुए ईमानदारी कुछ इस तरह् चर्चा में आई कि लगा ये चर्चा तो पूरी ईमानदारी से हो रही है. पूरे देश में ईमान का डोलता पेंडुलम रुक नहीं गया तो कुछ सहमा-सहमा डोलता नज़र आया. ईमान का एक स्तूप सा उभर आया बेईमानी के जंगल में और उसकी एक अदद प्रतिकृति हर गली कूचे में चमकने लगी. ईमान के भिक्षु ‘हा हंते-हा हंते’ चिल्लाते घूमने लगे. उनके चहरे के तेज़ के आगे हर शै काली दिखने लगी. उधर खुद ईमान पर इतनी उंगलियाँ उठीं कि बगलें शरीर में जहां भी थीं झाँक-झाँक कर देखी जाने लगीं. ईमान का सिक्का खरा-खरा सा चमकने लगा. खोटे सिक्के सेफों में छुपा दिए गए. सारी बिल्लियाँ हज की दिशा में हसरत से यूं देखने लगीं मानों वीज़ा-पासपोर्ट की व्यवस्था होते ही निकल पड़ेंगी क्योंकि सत्तर चूहे तो हर बिल्ली अपने पूरे करियर में खा ही लेती है. अपना-अपना ईमान अंटी में दबाये हर खासो-आम खुले में आ गया और उसे मैडल की तरह प्रदर्शित करने लगा. ईमानदारी का एक मजमा- सा लग गया. देखते-देखते ईमानदारी आम हो चली. ईमानदारी सर चढ़ कर बोलने लगी. ज़ुब