इस बीच व्यंग्य की जुगलबंदी के बहाने सामयिक मुद्दों पर लिखा गया. यहाँ टिका देना ठीक रहेगा:
भविष्य में जब भूतकाल के रूप में वर्तमान दौर
का ज़िक्र होगा तो संभव है इतिहासकार इसे ‘बयान-युग’ कहें. इतिहास को युद्ध और
वीरों से विशेष प्रेम रहता आया है, इसलिए हमारे समय के संघर्षों को बयानवीरों के
ज़रिये बयान किये जाने पर ही इस काल के साथ न्याय हो पायेगा.
इतिहासकार लिखेगा- इक्कीसवीं सदी के दुसरे दशक
के उत्तरार्ध में अद्भुत बयान-वीरों का उद्भव हुआ. इस काल में बयान ही युद्धों के
सबसे प्रभावी अस्त्र थे. छुरियों की जगह भी बयानों ने ले ली थी और कहावत –‘मुंह
में राम, बगल में ही बयान’ थी. तब दो या अधिक दल पूरे साल आपस में संघर्ष-रत रहते
थे और बयान के ज़रिये ही एक दुसरे को ध्वस्त करने में लगे रहते थे. बयान से शत्रु
के खेमे में खलबली मचाने से लेकर चिकोटी काटने तक का काम लिया जाता था. यहाँ तक कि
पलट-वार के लिए भी बयानवीर शत्रु के मोहताज नहीं थे, बल्कि खुद ही बयान से पलट
लिया करते थे. इधर शत्रु भी बयान को तलवार छुपाये बैठा म्यान ही समझता और बयान के
मुकाबले बयान ही मैदान में उतारता था. कुल मिला कर बयान इतने व्यापक थे कि उस काल
के युद्ध को ‘बयानबाजी’ की संज्ञा दी जा सकती है.
बयान के लक्ष्ण स्पष्ट करते हुए इतिहासकार
लिखेगा- बयान मुख्यतः दो प्रकार के होते थे- आधिकारिक और निजी. एक किस्म मन की बात
या अंतरात्मा की आवाज़ भी थी. निजी बयान से मुकर जाना आसान होता था, पर अक्सर
आधिकारिक बयानों को भी बयानबाज की निजी राय बता कर मुकर लिया जाता था.
प्रेस-कान्फ्रेंस, पब्लिक मीटिंग और घर-बुलाये पत्रकार बयानों के लांचिंग पैड होते
थे. बयान वीर युद्ध के पैंतरों के हिसाब से बयान डिजाईन करते और सुनिश्चित जगह से
छोड़ देते थे. कई बार जुबान की फिसलन भी असरदार बयानों को जन्म देती थी. बयानों के
किसिम किसिम के इस्तेमाल थे और उतनी ही ज़ारी करने की विधियां. आम बयान इस यकीन के
साथ यों ही हवा में चला दिए जाते कि सीधे लक्ष्य पर ही गिरेंगे, पर ये होनहार बयान
लक्ष्य के अलावा भी इधर उधर भी जा पड़ते. कुछ बयान ‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे
निशाना’ के अंदाज़ में तिरछे फेंके जाते थे. बाज़ बयानों में कई-कई अर्थ भरे होते
थे, न भी होते तो बयानोपरांत भर दिए जाते थे. बयान ज़ारी करने के बाद बयानवीर और
उसकी टुकड़ी इसकी व्याख्या में लग जाती थी कि इसका वो अर्थ तो कतई नहीं जो निकलता
मालूम हो रहा है. अक्सर बयानों के अनर्थ में ही उनका अर्थ छुपा होता था.
इतिहास में बयानों के प्रभाव का विवेचन यों
किया जाएगा- कुछ बयानों से तहलका मच जाता था तो कुछ से हंसी की फुलझड़ियाँ छूटतीं
थीं. क्षोभ, गुस्सा, तिलमिलाहट और आगजनी और दंगे तक इसके प्रभाव से पैदा होते. पर
धीरे-धीरे बयानों की बौछार इतनी बढी कि उनके अर्थ निकालने का कोई अर्थ नहीं रहा.
तब ये टीवी पर और सोशल मीडिया में युद्ध के विशेष प्रकार ‘विमर्श’’ में इस्तेमाल
होने लगे. इस युद्ध में समर्थन, खिल्ली उड़ाना और गाली-गलौज जैसे हथियार काम में
आते थे. बयान से पलटने, बयान पर विरोधी का बयान ज़ारी होने और बयान वीर के अपने ही
बयान पर अगला बयान ज़ारी होने तक विमर्श युद्ध चलता. बयानवीर गीता के उपदेशों का
अनुसरण करते हुए कामना रहित हो कर बयान ज़ारी करते रहते, समाज बहस, दंगे-फसाद,
मार-काट मचा कर और पक्ष-विपक्ष के खेमों में बंट कर बयानों को सार्थक करता था. उस
युग में किसी बयान वीर के खुद वीरगति को
प्राप्त होने के कोई प्रमाण नहीं हैं.
बयानवीरों की अतिबयानशीलता, बयान के पीछे सत्य
और नैतिक बल का गायब होना और बयानवीरों की छवि में ठगों और विदूषकों के दर्शन
होना, बयानबाजी से खोखलेपन और प्रायोजित होने के लक्षण दिखना और महज़ बयानबाजी के
लिए बयानबाजी होती देख जनता के मोहभंग जैसे कारणों से उसी युग में बयान अपना असर
खोने लगे. युद्ध का मैदान आभासी दुनिया तक विस्तृत हो जाने के कारण हर बयान में
लिपटे मुद्दे की जनता के हाथों की ऎसी धुनाई होने लगी कि बयानवीर अपना बयान वापस
अपने मुंह में लेने से भी डरने लगे. तब बयानबाजी युद्ध के पैंतरे की जगह
चुटकुलेबाजी का खेल लगने लगी, जिसे तब के एक लोकप्रिय खेल टी-ट्वेंटी के एक
संस्करण की तरह मनोरंजन का ज़रिया मान लिया गया. सरकार के किसी आधिकारिक बयान में
हास्य रस न होते हुए भी लोग उसे महज़ लफ्फाजी समझ कर हंस देते. विपक्ष उस बयान को
धूर्तबयानी की संज्ञा देकर विरोध में कोई बयान ज़ारी करता तो जनता उस पर भी हंस
देती. स्थिति यहाँ तक पहुंची कि कार्टूनों और व्यंग्य के अलावा बयान पर मशहूर फ़िल्मी
संवादों की पैरोडी भी बनी, जिसमें एक गुस्सैल नायक चीख कर कहता- बयान पर
बयान..बयान पर बयान...
अंततः भारतीय समाज के लिए बयानबाजी एक ऎसी चटपटी
भाजी भर रह गई जिसे जनता, नेता और मीडिया सभी चटखारें लेकर हजम कर जाते थे.
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