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Showing posts from April, 2015

ज़रा चरणों की बात हो जाए- एक पुरानी रचना पर आज भी एकदम प्रासंगिक लग रही है.

अथ चरण-पुराण           आम तौर पर चरण शब्द से अर्थ आदमी के शरीर के निचले भाग में पाए जाने वाले बाँस-सरीखे पायों का लिया जाता है जो उपरी धड़ को थामे रहते हैं। ये संख्या में दो होते हैं। अगर किसी वज़ह से ये जोड़ा टूट जाए तो उसकी कसर बांस, बेंत या किसी भी लकड़ी की बैसाखी से पूरी कर ली जाती है. आजकल तो स्टील भी प्रयोग किया जाने लगा है। अवसरानुकूल चरणों को टांग पांव, पैर, टंगड़ी या पाद आदि कहा जाता है। बहरहाल यहाँ चर्चा उस टाँग की नहीं होने जा रही जो टूट जाती है या मार कर तोड़ी जाती है न ही उन पाँवों की जो कुछ प्राकृतिक कारणों से भारी हो जाते हैं, बल्कि उन चरणों की होगी जो छुए, चूमे, पखारे या धो-धो के पिए जाते हैं और अक्सर जिनकी धूलि को माथे पर लगा लिया जाता है.               कुछ लोगों को कुछ लोगों के चरण कमल सरीखे लगते हैं. आपकी अपनी आँखों से ऐसा दिखे ये ज़रुरी नहीं, क्योंकि चरण अमूमन एक बदशक्ल-सी चीज़ होते हैं, जिनमें पंखडी, पराग और सुडौल पत्तों का अख्श नहीं मिल सकता. बल्कि ज़्यादा संभावना तो इस बात की है कि वहां बेडौल उँगलियों, गंदे नाखूनों और फटी बिवाईयों का एक वीभत्स-सा कोलाज मिले. ज़ा

काल-संक्रमण को समझने की कोशिश में कुछ नए-पुराने विचार

काल-संक्रमण को समझने की कोशिश में कुछ नए-पुराने विचार - इतने लम्बे (व्यंग्य) आलेख के लिए क्षमा प्रार्थना सहित. अपने धैर्य की सीमा और श्रद्धानुसार पढ़ें! भारतीय समाज एक संक्रमण काल से गुजर रहा है. सभी समाज किसी न किसी युग या काल से गुजरते रहने को अभिशप्त हैं. जैसे, कुछ दिनों से एक समाज अच्छा भला स्वर्ण-काल से गुजर रहां था कि एकदम से अंधकार युग आया गया. समाज भी चटपट सोने की धूल झाड-झूड कर एक अंधेरी गली में घुस गया और रास्ता टटोलता गुजरने लगा. तभी सामने से लालटेन हाथ में लिए एक महापुरुष रास्ता दिखाने लगा और समाज तुरंत अपना चोला बदल कर उस महापुरुष के पद चिन्हों पर कदम साधने लगा. वैसे इतिहासकारों और समाजविदों ने स्पष्ट किया है कि ये युग और काल एकदम से नहीं बदल जाते, बल्कि बीच में एक संक्रमण काल भी होता है जो जाते हुए काल और आते हुए काल के बीच पुल-सा खडा रहता है. ऐसे कालों में अक्सर किसी संक्रामक प्रवृत्ति के कीटाणु पूरे समाज पर हमला बोल देते हैं और उसी के प्रभाव में समाज के लोग छींकते-कांखते अगले युग में प्रवेश कर जाते हैं. संक्रमण काल में एक प्रवृत्ति आ रही होती है तो दूसरी जाने की फि

अपनी एक व्यंग्य रचना - कोहरा और विकास की रेल- 'लफ्ज़' के ताज़ा अंक में आई है !

कोहरा और विकास की रेल शीत लहर और कुहरे से ज़्यादा टिकट कन्फर्म न हो पाने की आशंका से कांपते मन और शरीर को उस वक़्त बड़ी गर्माहट का अहसास हुआ जब एक मित्र ने कहीं से एक कन्फर्म तत्काल टिकट जुगाड़ दिया. हवाई जहाज से कुछ ही कम कीमत अदा करने के बावजूद ये सौदा महंगा नहीं लगा क्योंकि ऑफिस से मिली छुट्टियां दो रोज़ पहले ही खर्च हो चुकी थीं. मोबाइल फोन पर रेल विभाग से ये जानकारी हासिल कर कि ट्रेन चार घंटे विलम्ब से छूटेगी ,  समय का हिसाब जोड़-घटाने के बाद अपना सामान और मन में इत्मीनान लिए मैं स्टेशन पहुँच गया. प्लेटफार्म पर देश की आबादी के अनुपात में ही यात्री लोग मौजूद थे. बाहर ‘कमाने’ निकले देश के डेमोग्राफिक डिविडेंड अर्थात युवा शक्ति का प्रतिशत कुछ अधिक ही था जो सस्ती जींस जैकेट पर मफलर कसे ,  सूटकेस-थैलों में सत्तू-चिवडा और चेहरे पर बदहवासी लादे यहाँ-वहां टहल रहे थे. चादरें बिछी हुई थीं,  जिनपर इंसान सामानों की तरह ही बिखरे पड़े थे. कभी कोई एक आदमी उचक कर प्लेटफार्म के किसी छोर पर गुम होती रेल लाइन की और देखने लगता तो बाकी सारी गर्दनें एक लय में उसी ओर लचक जातीं. घोषित विलम्ब के चार घंटों क