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एक था गधा उर्फ़ शरद जोशी के नाटक में हम

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शरद जोशी का मशहूर नाटक "एक था गधा उर्फ अलादाद खान" की अपनी मंडली के साथ मंच पर प्रस्तुति के बाद एक व्यंग्यात्मक आलेख लिखना बनता था. कुछ देर से सही, लिख पाया . ..... नाटक हमारे लिए कोई अजूबा नहीं था. बाबू-जीवन के हर चरण में कोई न कोई नाटक चलता ही रहता है. अलग से एक नाटक खेलने की ज़रूरत क्यों पड़ी ये एक सवाल है जिसका जवाब अभी ढूँढा जा रहा है. थियेटर किस चिड़िया का नाम है ये हम जानते थे क्योंकि देख रखा था. हमेशा बर्ड-वाचिंग के अंदाज़ में मंडी हाउस के थियेटरों की ओर जाते और अन्य कई चीजों के अलावा नाटक भी देख लेते थे. इतना पक्के तौर पर मालूम था कि इसमें एक मंच होता है जिस पर कुछ लोग नाटकीय अंदाज़ में चलते-बोलते रहते हैं. रटे-रटाए सम्वाद और उसपर से ‘ जो भूले सो याद कराया ’ की सुविधा के साथ विंग्स में छुपा प्रोम्प्टर. ये कौन-सा मुश्किल काम था जब हम जब चाहे बिना स्क्रिप्ट ही बॉस और बीबी दोनों को अपने सहज अभिनय से झूठ सच की सीमा पर भटकाते रहते हैं. वैसे ये नाटक “ एक था गधा उर्फ अलादाद खान ” सोच समझ कर नहीं चुना गया था पर आख़िरकार सटीक साबित हुआ. ये अच्छा रहा कि नाटक क
आज तीन साल के बाद दुबारा ब्लॉग करते हुए ये सोच रहा हूँ कि क्या हुआ था इस बीच जो चुप्पी लग गई। किसी ने याद दिलाया तो मुझे याद आया। हालांकि इधर खूब लिखा, एक किताब भी आ गई, पर वही कि चिट्ठियों सा कुछ लिखने का अभ्यास छूट गया। हम सब शब्दों के संकुचन के दौर में जी रहे हैं। सोच तक विस्तार नहीं ले पाती। जल्दबाजी में हैं हम। बहुत पढ़ते हैं पर कुछ भी जज़्ब नहीं कर पाते। खूब घूमते हैं पर कहीं जुड़ते नहीं। नए हालातों ने हमें बंधक बना रखा है। इन जंजीरों से छूटने की ज़रूरत है। एक नया जुनून पाला। भूली-बिसरी कुछ पुरानी फ़िल्में डाउनलोड की और एक सिरे से देखना शुरू किया। फिल्मों के अलावा भी कई दृश्य आँखों के सामने आये। हर फिल्म से एक अलग समय का जुड़ाव था। पुरानी चिठ्ठियाँ निकाल के पढ़ने का-सा सुख। आज के दौर के कुछ सफे भी खुलते महसूस हुए। अफसोस इस अभियान में कोइ साथी नहीं था। किसी के साथ ये कर देखने का जी हो आया। दिनचर्या आवाज़ लगा रही है। दो घड़ी के अपने आप के इस साथ को टालना होगा। फिर कभी लौटता हूँ।