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Dee Dee Trishanku Par

परसाईजी की एक सदाबहार व्यंग्य रचना है- इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर. भारतीय पुलिस व्यवस्था की परतें उधेड़ती ये फैंटेसी पर बुनी गई रचना हर युग में लेखकों को प्रेरणा देती रही है. मैं भी ये मोह नहीं छोड़ पाया कि इस थीम पर व्यवस्था के किसी और खम्भे को थोड़ा कुरेद कर देखूं  (नोचना तो खिसियानी बिल्ली को याद दिलाता और, नोच पाना क्या सचमुच हमारे बस में है?) खैर! त्रिशंकु ग्रह पर सलाहकार की हैसियत से गए दातादीन उर्फ़ डीडी वहां थोड़े ही समय में ही कैसे प्रशासनिक सुधार के ज़रिये पालिसी पैरालिसिस ले आते हैं उसकी कहानी पढ़ कर देखें. (लफ्ज़ के पिछले अंक में प्रकाशित)   डीडी त्रिशंकु पर  हमारी वसुधैव कुटुम्बकम वाली प्राचीन संस्कृति की महानता पर कौन संदेह करेगा! अर्थात कोई नहीं. अगर कोई करने पर आमादा ही हो तो उसे चुप करने को ये आलेख काफी होगा. सृष्टि के आरम्भ से ही हमारी संस्कृति के कद्रदान पूरे ब्रम्हांड में फैले रहे हैं और हमारी विकसित सभ्यता के डंके पूरे अंतरीक्ष में यों गूंजते रहे हैं कि आकाशीय ‘फ्रेंड-रिक्वेस्ट’ की भरमार से हम परेशान रहे. ज़रा बताईये कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों में उड़न-तश्तरियों का ज़िक्र

हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका "हरिगंधा" के व्यंग्य विशेषांक में प्रकाशित मेरी व्यंग्य रचना

गरीबों की सुनो गरीबी एक जिद्दी सी चीज़ है जो हटाये नहीं हटती. यहाँ तक कि सरकारों की ‘गरीबी हटाओ’ के हुंकारों से भी नहीं डरती. जहां होती है, वहीं जमी रहती है, बल्कि थोड़ा-थोड़ा पिघल कर आस-पास रिसती भी रहती है. आजादी के वक़्त देश में बहुत-सी गरीबी पड़ी थी, पर तब सरकार के पास ढेरों दूसरे काम पड़े थे. योजनायें बनाना उनमें प्रमुख था. सरकार समझती थी कि योजनाओं की मदद से संपन्न होने वाले बड़े-बड़े कामों से जो समृद्धि पैदा होती है उसकी तलछट से गरीबी भी हटती जाती है. जैसे एक बड़ा बाँध बनाने से उसके डूब-क्षेत्र में रहने वाले गरीब हटा दिए जाते हैं तो गरीबी भी उनके साथ ही हट जाती है. कुछ दशकों के बाद पता चला कि गरीबी हट तो गयी थी पर उन ग़रीबों के साथ वहीं जाकर बस गयी जो अब भी गरीब ही हैं. तब विशेष तौर पर ‘गरीबी हटाओ’ का हुंकार-भरा नारा दिया गया. तब से सरकारें गरीबी हटाने में जुटी हैं, बल्कि अब तो गरीबी-उन्मूलन की बात करने लगी हैं. गरीबी हटाने के सिलसिले में सरकार ग़रीबों की गिनती करवाने के अलावा गरीबी की नाप-जोख भी करवाती है. सरकारी विद्वान गरीबी की परिभाषा तय कर एक लक्षमण-रेखा सी खींच देते हैं. इस

ब्लॉग "बैठे ठाले" के होली अंक में मेरा ये ताज़ा व्यंग्य.

कबीरा कहे.... ईमान से ,  ईमानदारी की खटिया अभी नब्बे डिग्री तक नहीं खड़ी हुई. साधो! कुछ दिन हुए ईमानदारी कुछ इस तरह् चर्चा में आई कि लगा ये चर्चा तो पूरी ईमानदारी से हो रही है. पूरे देश में ईमान का डोलता पेंडुलम रुक नहीं गया तो कुछ सहमा-सहमा डोलता नज़र आया. ईमान का एक स्तूप सा उभर आया बेईमानी के जंगल में और उसकी एक अदद प्रतिकृति हर गली कूचे में चमकने लगी. ईमान के भिक्षु ‘हा हंते-हा हंते’ चिल्लाते घूमने लगे. उनके चहरे के तेज़ के आगे हर शै काली दिखने लगी. उधर खुद ईमान पर इतनी उंगलियाँ उठीं कि बगलें शरीर में जहां भी थीं झाँक-झाँक कर देखी जाने लगीं. ईमान का सिक्का खरा-खरा सा चमकने लगा. खोटे सिक्के सेफों में छुपा दिए गए. सारी बिल्लियाँ हज की दिशा में हसरत से यूं देखने लगीं मानों वीज़ा-पासपोर्ट की व्यवस्था होते ही निकल पड़ेंगी क्योंकि सत्तर चूहे तो हर बिल्ली अपने पूरे करियर में खा ही लेती है. अपना-अपना ईमान अंटी में दबाये हर खासो-आम खुले में आ गया और उसे मैडल की तरह प्रदर्शित करने लगा. ईमानदारी का एक मजमा- सा लग गया. देखते-देखते ईमानदारी आम हो चली. ईमानदारी सर चढ़ कर बोलने लगी. ज़ुब