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Showing posts from March, 2016

साहित्यम होली विशेषांक २०१६ से

ये सीटी-वादक – कमलेश पाण्डेय आप ही बताईये- इन चंदूलाल का क्या करें?  ये हर वखत चिंता में सुलगते रहते हैं. इनकी चिंता है कि कोई कुछ कर कर रहा है तो क्यों रहा है. कहीं भी कुछ हो क्यों रहा है. ये विकल्प-शास्त्र में पीएचडी हैं. इनके जाने कोई आदमी, संस्था, पार्टी या खुद सरकार ही कुछ करने की ठान ले तो तुरंत-फुरंत घोषणा कर देते हैं कि ये तो गलत हो रहा है...इसे तो होने का कोई अधिकार ही नहीं. इसके बाद अपने विकल्पों की पिटारी खोलकर बताने लगते हैं कि इस काम के एवज़ तो ये, वो या फिर इत्ते सारे काम इकट्ठे भी हो सकते हैं.  उद्यमी लोगों की मेहनत को पलीता लगाते चिर-चिन्तक चंदूलाल हर संभव जगह पर घुमते-फिरते या धरने पर बैठे हैं. छोटू-उस्ताद की मंडली ने मोहल्ले में अष्टयाम का आयोजन किया. चेलों ने बस बाज़ार की दुकानों का एक फेरा लगाया. चंद आँखें व बंधी मुठ्ठियाँ दिखा के और “धरम का काम है” की रसीद देके बातों-बातों में पचासेक हज़ार इकठ्ठे हो गए. काम शुरू हो इससे पहले ही चंदूलाल प्रकट हुए और सीटी बजाते घूमने लगे कि ये गलत हो रहा है. मोहल्ले में सबको बताने लगे कि अष्टयाम के बदले इतने पैसे में जाने

जे एन यू, उसकी विचारधारा और बदलते सुरों से अपनी पुरानी पहचान को जोड़ने की कोशिश में कुछ लेख लिखे हैं ..

8 मार्च 2016 जेएनयू के अपने युवा दोस्तों के लिए- दोस्तों- मान गए भाई, खूब बोले, जबरदस्त बोले. जुमले का जवाब चुभते हुये जुमले, नारे का जवाब और जब्बर नारा और बॉडी लैंग्वेज के तो क्या कहने, नाट्य-शास्त्र के टर्म-पेपर में एकदम ए-प्लस लायक. देश के मूल-भूत सवालों को उठाकर ताज़ा बहस के मूल सवाल को पीछे धकेल दिया तुमने. देश से आज़ादी या देश में आज़ादी हुई कि न हुई- वो भूली दास्ताँ यानि बोले तो एक सर्वहारा क्रान्ति जरुर हो गई. कई दशकों से इस सर्वहारा क्रान्ति का वैचारिक पोषण देश रूपी जंगल में जे एन यू नामक द्वीप की परिधि में ही होता रहा है. कैपस में घुसते ही क्रान्ति के गर्म झोंकों से स्वागत होता रहा है. चाहे वो धरती पर कहीं हो रहा हो-‘हर जोर-ज़ुल्म के टक्कर में’ यहाँ कुछ लोग जुट जाते हैं संघर्ष के नारों के साथ भाव-भीने, ओज और तंज तथा बुद्धिमत्ता से भरे भाषण (जैसा तुम्हारा था) होने लगते हैं. गंगा-ढाबा क्रान्ति के परिनिर्वाण का घाट है. उबलती चाय, सुलगती बीडियों और दहकते जुमलों की आहुति के साथ पूरी दुनिया के बुर्जुआ-जनों की चितायें जली हैं इस मणिकर्णिका पर. दुनिया भर की ग़रीबी और शोषण के विरोध

चार साल पहले अपने दूसरे व्यंग्य संग्रह का शीर्षक अपनी एक प्रिय रचना के आधार पर रखा- तुम कब आओगे अतिथि..रचना शरद जोशी की अद्भुत कृति "तुम कब जाओगे अतिथि" से प्रेरित थी. (उसी साल जब मेरी किताब प्रेस में थी, शरदजी के शीर्षक के साथ एक फिल्म भी आई) मेरा ख्याल है कि किसी महान रचना का शाशवत सन्दर्भ तो रहता ही है, समाज के बदलने के साथ उस सन्दर्भ के पह्लुओं को बदल कर भी देखा जाय तो रोचक परिणाम आते हैं.."तुम कब आओगे.." क्लासिक रचना से उलट थीम में है और पेईंग गेस्ट संस्कृति की कुछ विडंबनाओं की पड़ताल करती रचना है.. इसे फिल्म से जोड़कर कतई न देखा जाय, न ही शरदजी की क्लासिक रचना से, जो एक खबर के टुकड़े के आधार पर जन्मे इस सोच का माध्यम भर बना. बेशक मैंने रचना का खाका भी उन्हीं की तरह रखा है..मेरे एक फिल्मकार मित्र को ये रचना विजुअलाईजेशन की दृष्टि से खूब पसंद आई..आप भी देखें और आनंद लें.

तुम कब आओगे अतिथि             आज तुम्हारे प्रस्थान के चौथे दिवस एक ही प्रश्न मन में गोल-गोल घूम रहा है- तुम कब आओगे अतिथि , और अगर नहीं आये तो तुम-सा दूजा कहां मिलेगा!             वो दिन स्मृति के बार-बार कौंध रहे हैं जब तुम हमारे दड़बे जैसे घर में अपनी दुबली पतली काया , मगर मोटे पर्स के साथ पधारे थे। हमने अख़बार के ज़रिये एक पेइंग-गेस्ट आमंत्रित किया था जिसके लिये अपने ढाई कमरे के फ़्लैट के आधे कमरे से कबाड़ हटाकर जगह बना दी थी। पड़ोस वाले गुप्ताजी ने ही बताया था कि उनके घर एक ऐसा अतिथि रहता है जो महज़ साथ रहने और खाने-पीने के मोटी रक़म देता है। यह सुन कर मेरी बीबी की आंखें ईर्ष्या और कुटिलता से मिचमिची हो उठी थीं। बरसों पहले उसकी इसी अदा पर रीझ कर मैंने उसे सतत बेरोज़गारी से उपजे अपने निठल्लेपन का साथी बनाया था। पहले तो उसने गुप्ताजी के पेइंग गेस्ट को ही तोड़ने की कोशिश की। उसे डिनर पर बुलाकर अपनी पाक-कला और दरियादिली का नमूना दिखाया। पर जाने बीबी के बनाए भोजन के स्वाद की वज्ह से या दिल के दरिया में दलदल की संभावना परख ली कि वह बिदक गया।             फिर तुम आये। तुम्हा