हिन्दी की सरकारी दशा पर लिखा था ये व्यंग्य .... देखें और महसूस करें.. अच्छी लगे तो टिप्पणी भी करें
प्रोत्साहित होती हिन्दी सशंकित रहना व्यंग्यकार की फ़ितरत है। सीधी-सपाट स्थितियों में भी अपनी तिरछी दृष्टि गड़ा कर उसमें वक्रता ढूंढता रहेगा। तंबू में भरी भीड़ के सामने जो चल रहा है, सामने से जाकर सबके साथ उसके मज़े नहीं लेगा, बल्कि कोने में कहीं उंगली बराबर छेद कर मंच को परखेगा या ‘बैक-स्टेज़’ को निहारेगा। दाल को काली देखकर उछल पड़ेगा, क्यों न वो जीरे की छौंक-सा रुटीन कालापन ही हो। दुनिया एक पगडंडी पर भेड़ों की भीड़-सी चली जा रही होगी, वह राह का पत्थर बना भेड़ों की चाल पर छींटाकशी करेगा। चंदूलालजी को ही ले लीजिये, नींद उड़ी हुई है, ऊटपटांग सपने आ रहे हैं- बात कुछ भी नहीं है। बस दफ़्तर के हिन्दी-पख़वाड़े से गुजर कर सदमे में हैं। सभी से कहते फिर रहे हैं कि इस देश में हिन्दी के नाम पर खाली नौटंकी हो रही है। मैंने बस इतना ही कहा कि इस नौटंकी में एकाध भू्मिका लेकर कुछ कमा ही लेते तो दिल में इतनी ख़राश नहीं होती, तो नाराज़ हो गये। आप खुद सोचिये कि अगर सरकार के विचार में हिन्दी कहीं पर रुकी पड़ी है तो उसे आगे बढ़ाने की ही बात होगी न। इस देश में किसी को आगे बढ़ाने की बात सरक