यात्रीगण कृपया ध्यान दें..
यात्रीगण कृपया ध्यान दें.. ज़रा गुनगुनाईये ये
गाना..जिंदगी ईक सफर है सुहाना...और ये सफर अपना देश रेलों पर चढ़ के करता है..जैसे
जिंदगी लम्बी होती है, न हो तो दवाओं और दुआओं से खींच कर लम्बी की जाती है...पर ट्रेन
का सफर लम्बा ही होता है. बिना दवा या दुआ के ही- एकदम मुफ्त! जैसा जिंदगी के सुहाने
सफ़र के इस गीत में आगे एक डिस्क्लेमर है- यहाँ कल क्या हो किसने जाना, ट्रेन में भी
एक बार चढ़ गए तो समझो सुहाना सफर चालू ..आने वाले कल की फ़िक्र से आज़ाद हो जाओ. किसने
जाना कि इस ट्रेन की कल हो न हो. कल जो है अगले कल पर टल जाए या कि बीच में ही
किसी सुहाने स्टेशन पर आपका सफर ख़त्म हो जाय.. असुविधा के लिए खेद सहित.
इन दिनों हमारी रेलें उपरोक्त गीत में छुपे दर्शन से
भीगी-भीगी सी चल रही है. मतलब चल रही हो या न हो, भीगी-भीगी सी ही रहती है. रेल के
लिए समय की गणना ब्रम्हांड के दो सितारों के बीच की दूरी के पैमाने पर होती है.
कटिहार से कानपुर इतने प्रकाश-वर्ष की दूरी पर. टाइम-टेबल नया है, फोल्डिंग वाला.
लपेट कर ईंजन में डाल लो और चल पड़ो. एक न एक दिन मंजिल आ ही जायेगी. या फिर शायर
के कहे नुसार ..उठके मंजिल ही अगर आये तो शायद कुछ हो. हाल में ही एक जांबाज ट्रेन
अपनी मंजिल को अपने नियत समय में चवालीस घंटे जोड़ कर पाने में सफल रही. कईयों ने
तो चलने से पहले ही दम तोड़ दिया था. चल देने और पहुँच जाने में रेलों ने आज और कल
में फर्क करना छोड़ दिया है. एक तो अपने कल के वक़्त पर आज छूटी और अपने सफर के
दौरान एक और आज समेटते हुए कल की बजाय परसों पहुंची. यात्रीगण घोषणाओं पर
कृपापूर्वक ध्यान देते देते ट्रेन पर चढ़े और घडी-कैलेण्डर की कैद से तीन रोज़ आज़ाद उसी
में पड़े रहे. सफर के सुहानेपन का ये नया रिकार्ड था. प्लेटफार्म पर कुछ दुनियावी
जीव वेंडरों से पूछते रहे कि भाया, ये कालिंदी कल वाली है या आज वाली? जबकि ट्रेन
के पेट में समाये प्राणी ऐसे प्रश्नों से ऊपर उठकर कैवल्य पा चुके थे.
ऐसी ही एक गाडी की बर्थ पर लेटे-लेटे आँख झपकी तो
मैंने एक स्टेशन पर प्लेटफार्म के दोनों ओर खड़ी दो गाड़ियों को आपस में बतियाते सुना-
-कब की चली हो बहन?
- कुछ रोज़ हुए..शायद दो दिन, जब जलपाईगुड़ी से चली
थी..और तुम?
- पठानकोट से परसों शाम...
- हाय दईया, ये तो बड़ी दूर होगा?
- है तो..इस वक़्त तो मुझे वापसी में वहीं होना
था..तुम्हारा भी तो टैम खराब चल रहा है..
- मुझे टेंशन नहीं रहती..उधर से मेरी जुड़वां बहन चलती
है, इधर से मैं.. पर आज तो हद हो गई..हम रोज़ मुगलसराय में मिलती थीं..जब वहां
पहुंची तो बता रहे थे कि वो तो अभी तक चली ही नहीं दिल्ली से.
- क्या कहूं बहन..ज़माना ही बदल गया..कैसा खाली-खाली
ट्रैक होता था..धड़धडाते निकल जाओ.अब तो दो फर्लांग आगे एक चल रही है तो दूजी पीछे
सटी-सटी चली आ रही. जिन स्टेशनों को मुड़कर भी नहीं देखते थे कभी, अब वहां घंटों
खड़े रहते हैं..
- अरे स्टेशन छोडो..वो हर आउटर सिग्नल पर रुक के
सलामी देना क्यों भूल जाती हो..ऐसे ही थोड़े होते हैं लेट तीस घंटे .. कहने को सुपर
फ़ास्ट हैं, चाल ऐसी कि कछुए भी ओवरटेक कर लें..
- सुनते हैं जल्दी ही हमारी बुलेट रानी भी आ रही
हैं..जाने वे कैसे दौड़ेंगी इस भीड़ में? कैसी तो आवाज़ करती हैं ये पटरियां.. थोड़ी
स्पीड पकड़ो तो पूरा बदन थरथराने लगता है.. कभी हमारे गुजरने से पुल थरथराते थे और
कवियों को प्रेरणा मिलती थी, आज...
- एक दिन चार बत्तियां लगातार हरी मिल गईं.. ‘दम लगा
के हईसा’ बोल के बढी ही थी कि लगा पटरी से फिसल जाऊँगी, तुरंत ब्रेक लगा लिया ..अब
तो रुकते हुए चलने की आदत सी पड़ गई है..चार स्टेशन से ज़्यादा पार ही नहीं होते एक सांस
में...रुके रुके से कदम..रुक के बार-बार चले..
- वाह क्या बात है..पर यहाँ हम इत्ते ऊबे हुए हैं तो
अपने डिब्बे में बैठे लोगों की सोच. ऊभ-चुभ कर रहे हैं ..फाल्तूपने की जीती-जागती
मूरत लग रहे..खिसियाहट में पूरा प्लेटफार्म चर गए हैं..वेंडरों की चांदी कट रही है
.. थोड़ी देर और सिग्नल नहीं हुआ तो देखना एक दो तो ज़ुरूर पगला जायेंगे.
- अरी छोड़, अपने देश के बन्दे कमाल दे हैंगे. एक
डिब्बे में जिन्ना के फोटू पर बहस चल रही गर्मागर्म. यू पी के मैदान में खड़ी है
गाड़ी और कर्नाटक पर इतनी गहराई से बात चल रही जैसे थोड़ी देर में गाडी बंगलौर पहुँचने
वाली हो. जैसे हम खटाखट पटरियां बदलती हैं न, वैसे ही इनकी बहसें भी मंदिर-मस्जिद,
बैंक घोटाले, महंगाई, टैक्स की मेन लाइन से उतर कर लोकल पोलिटिक्स की लूप लाईन पर
दौड़ने लगती हैं..कोई नहीं ऊबा हुआ.. ऊबे झल्लाए होते तो इतने लोग मिल कर हमें
धक्के से ही मंजिल पर पहुंचा देते..
- चल छोड़ बहसबाजी की बात..ये बता तुझे हमारी गर्दन पर
लदे इन जनरल डिब्बों में कुछ जियादा बोझ नहीं महसूस होता. मलबे की तरह पड़े हैं
आदमी..भकुआए से, बदहवास. न हवा न पानी..ये क्यों चुप हैं?
- करवट ले पायें तब तो ऊबने का शौक़ फरमाएं.. मुझे तो
लगता है जैसी ज़िन्दगी ये जीते हैं और जैसी जीने जा रहे हैं उससे बुरे हालात तो
नहीं होंगे हमारे डिब्बों में. ..और हमीं नहीं लटके हुए हैं यहाँ..एक डिब्बे में
कोई कह रहा था कि देश-भर में हज़ारों गाड़ियां अपने टाइम-टेबल की ऎसी-तैसी करवाती
कहीं खड़ी या लुढ़क रही हैं. उसे शक था कि पिछले दिनों नोटबंदी में जैसे रातों रात
बड़े नोटों की कीमत ख़त्म कर दी गई थी वैसे ही कहीं रोज़ रेल में सफर करने वाले ढाई
करोड़ लोगों के समय की कीमत समाप्त तो नहीं घोषित हो गई?
- तुम भी न बहन खामख्वाह भावुक हो रही हो ..आदमी और
उसके वक़्त की कीमत उसकी सवारी से होती है..ट्रेन में चलने वालों की क्या कीमत.. बस
एक वोट बराबर .. हम और हममें बैठे ये लोग खड़े हैं तो क्या देश तो आगे बढ़ा जा रहा है.....सब
ओर ये स्लोगन गूँज रहा है. वो देख उस होर्डिंग को, उसपे भी लिखा है..
- तो फिर बंद करते हैं ये स्यापा.. पड़े रहो, अपना
क्या? देरी की वजहें गिनाने वाले गिना ही रहे हैं..जैसे ट्रेन और आदमी दोनों की
आबादी इतनी बढ़ गई है कि पटरियां और प्लेटफार्म खाली ही नहीं मिलते.. नए-नए रूट,
छोटी की बड़ी लाइन करना, लाइन की डबलिंग, इलेक्ट्रिफिकेशन, नए प्लेटफार्म, मॉडल
स्टेशन और सबसे बढ़ कर दिन-रात पटरियों की मरम्मत, मतलब खर्चा ही खर्चा.. सड़कों पर
गड्ढे होने पर तो मरम्मत के लिए सड़कें बंद हो जाती हैं, पर यहाँ पटरियों की मरम्मत
और गाड़ियां साथ-साथ चलती रहती हैं.. और वो बिना गेट की क्रासिंग..जहां से गुजरते
हुए मेरे तो पहिये यों ही ठिठक जाते हैं कि बच्चों से भरी कोई बस न फंसी हो बीच
में.. आदमी बचाएं कि वक़्त?
ट्रेनें अभी और दार्शनिक होतीं इससे पहले ही एक झटके
से मेरी आँख खुल गई. ट्रेन के एकदम चल देने का ये झटका ज़ोर का था जो एक आधुनिक
मुहावरे से सीख कर मुझे धीरे से लगा. ट्रेन रेंगने लगी थी, और मैं ऊंघने.
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