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Showing posts from 2016

रूपये -पैसे पर कुछ कहना फिर जुरुरी है....

अथ श्री श्री पैसा पुराण  मैंने एक बात नोट की कि नोटबंदी होते ही नोटों की मांग बहुत बढ़ गई है. आप टोकेंगे कि इसमें नया क्या नोट किया? सीधी - सादी इकोनोमिक्स है. पर मुझे यक़ीन रहा है कि पैसे को आदमी ने खुद ही जन्म दिया, इसीलिए उससे खूब प्यार करता है. प्यार करते-करते उसने इसका एक अदद शास्त्र भी रच डाला. सरकारें इस इकोनॉमिक्स से अपनी कारगुजारियां करती रहीं उधर हर आदमी ने अपना निजी इकोनॉमिक्स और पैसे एक अदद का निजी दर्शन भी सम्हाल कर रखा. पैसे पर ज्ञान को बघार कर या बिन बघारे भी ज्ञानियों ने हर युग में खूब फैलाया. जैसे ऑस्कर वाइल्ड फरमा गए हैं कि जब वे छोटे थे तो सोचते थे कि पैसा बड़ी चीज़ है और बाद में चल कर जब वे बूढ़े हुए तो यकीन हो गया कि वाकई है. इसी सत्य को एक अन्य ज्ञानी यूं कहते हैं कि बिन पैसे के आप जवान तो रह सकते हैं पर बूढ़े नहीं हो सकते. अगर होने पर आमादा ही हुए तो पैसा नहीं पेंशन आपको ठेल कर आगे ले जाएगा. पैसे को अपने-अपने अनुभवों के जरिये पारिभाषित करने की खूब कोशिशें हुई हैं. एक साहब कह गए हैं कि पैसा शक्ति है, आजादी है, सभी पापों का जड़ भी अर्थात सारी दुआओं का निचोड़ है. य

देवभूमि हिमाचल प्रदेश की स्वर्ग-सदृश वादियों में- किन्नौर होते हुए स्पीती घाटी की यात्रा का एक अनौपचारिक वृत्तांत

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किन्नौर और स्पीती की यात्रा निश्चित तौर पर प्रकृति से एक बेहद आत्मीय साक्षात्कार है. यों सभी यात्राएं ऎसी ही ही होती हैं पर अपनी धरती का ये अनोखा रूप आप में ठहर जाता है, आपको उफ़ कहने को मज़बूर न कर एक शांत-चित्त सी अनुभूति या कहें तृप्ति देता है. रास्ते की दुरुहता से चाहें तो जीवन दर्शन के सबक लें, पर ये तय है कि सकारात्मक वृत्ति और एडवेंचर की ललक के बिना ये यात्रा नहीं की जा सकती, बल्कि थोड़ी सनक भी इसमें शामिल हो तो क्या कहने. इस यात्रा में आप धरती की अंदरूनी करवटों से चरमराते पहाड़ों के उठान-ढलानों पर रेंगती सड़कों को पहाड़ों से ही एकाकार देख खुद को पहाड़ों की गोद में खेलता महसूस करेंगे,  या फिर नीले झक्क आकाश में उजले बादलों के साथ खेलते सूरज को हैरत से देखेंगे कि ये आपके शहर में आपको रोमांचित क्यों नहीं करते या फिर अपनी दीवार पर टंगी महँगी लैंडस्केप पेंटिंग के लाखों संस्करण मुफ्त आंखों के आगे बिछे देख  आप कुदरत के गतिमान रंगों के पैटर्न को सुकून से निहारते –क्लिक करते वक़्त बिताते सोचेंगे कि वही आप अपनी रूटीन ज़िन्दगी म

प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका "कथाक्रम" के ताज़ा अंक में व्यंग्य के वर्तमान परिदृश्य पर मेरा एक आलोचनात्मक आलेख, जो हिंदी व्यंग्य के स्वरूप, व्यंग्य लिखने का कारण और एक समालोचक के तौर पर हिंदी व्यंग्य से मेरी आशाओं आशंकाओं का संकलन भी है.

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व्यंग्य लिखना-पढ़ना: क्या बस यों ही? हिंदी व्यंग्य साहित्य लेखकों और पाठकों की दृष्टि से खासा समृद्ध प्रतीत होता है. छोटी मझोली पत्रिकाओं की घटती आवृत्तियाँ और नियमित बड़ी पत्रिकाओं के लगभग अवसान के बावजूद ऐसा कहना पड़ रहा है तो इसके  पीछे अखबारों के दैनिक कालम, साप्ताहिक परिशिष्ट और यदा-कदा निकलने वाले व्यंग्य- विशेषांक हैं. लिखने  वालों के लिए स्पेस की कोई कमी है, मुझे तो नहीं लगता. पढ़ने वाले भी हैं, जिसका प्रमाण इनका छपना-बिकना है. उस पर सोशल-मिडिया, वर्चुअल ग्रुप, इन्टरनेट पर साहित्य कोष और व्यक्तिगत ब्लॉग. लिखने–पढने की अनंत संभावना. पर क्या हिंदी व्यंग्य इस अभूत-पूर्व संचार-क्रान्ति का उपयोग कर अपना समुचित विकास कर पा रहा है? क्या बदलता दौर उसमें पूरी तरह धड़क रहा है? कहीं बदलाव का दबाव उसे अपनी साहित्यिक परम्पराओं और मानकों के राजमार्ग से उतर कर भटकाव की पगडंडियों की ओर तो नहीं मोड़ रहा? कहीं वर्तमान व्यंग्य लिखने-छपने की असीम सम्भावनाओं के बीच अति-उत्साह का शिकार होकर केवल तात्कालिकता के जाल में तो नहीं उलझ गया और समय की धार में छुपे शाश्वत मूल्यों के सीप को त्याज्य  समझने लग

हिंदी व्यंग्य साहित्य पर एक नन्हा-सा विचार

व्यंग्यपथ - मुझे अक्खा व्यंगिस्तान चाहिए. अपुन सबको व्यंग्य सप्लाई करेगा. एकदम सौ टका टंच माल. - जा जा! सौ टका टंच माल तो बस भोपाल से अपना ज्ञानू भाई सप्लाई करता. तेरे पास किदर है खालिस माल? - तो तुम्हारे पास ही किदर है? दो टाइप का माल सप्लाई करता है तुम, एक सपाटबयानी का पाउडर में दो चुटकी सरोकार मिलाता और दूसरा छोटा-छोटा पाउच में वन लाइनर मसखरी मार के बेचता है. - और ये तेरा विट शिट है. तेरा आइरनी पर सबको हैरानी है. अपुन इदर गैंग में नया लोक भर्ती किया- ज्ञानू दादा, सुबू दादा सारे गैंग का लेडीज़-जेंट्स सब लोक को इन्वाईट किया. उदर  मस्त आइटम डांस दिखाया..और  बोले तो..व्यंग्य का फार्मूला पे एक बड़ा सेमीनार भी किया. अभी ‘मठवा’गाँव  में अपुन लोक सारा दादा लोक का फार्मूला का मंथन कर के पुराने व्यंग्य से नया माल तैयार करेगा. - अब रहने भी दे, इदर भी विट, आइरनी, ह्यूमर का फुल सप्लाई है. इसमें सरोकार भी मिलाके ज्ञानू भाई के ख़ास फार्मूले से प्योर व्यंग्य बनाता है अपुन लोग. ऐसी चढ़ती, ऐसी चढ़ती कि पुरस्कार लेके ईच नीचे उतरती. - तो वो बना के करेगा क्या? इदर तिकड़ी गैंग के आगे तुमारा औकात क्य

यात्रा वृत्तांत लिखने का शौक़ उतना ही पुराना है, जितना यात्रायें करने का। कादम्बिनी के राजीव भैया ने ,मुझे लक्षद्वीप की यात्रा पर एक लिख लाने को कहा। तस्वीरें भी मंगवाईं। फिर इसी माह पत्रिका के पर्यटन विशेषांक में प्यार से छापा। यहाँ ब्लॉग पर उन्हीं शब्दों के साथ कुछ और तस्वीरें जोड़ कर ये यात्रा वृत्तांत प्रस्तुत है।

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कोरल द्वीपों का स्वर्ग: लक्षद्वीप एक बड़े समुद्री जहाज़ का डेक, चारों ओर फैला अथाह, पर शांत समुद्र जिसकी लहरों पर क्षितिज में बादलों की ओट से झांकते सूर्य की किरणों की थिरकन, कुछ ही दूर पर सतह पर तैरता –सा हरियाली का एक लंबा टुकड़ा, जिसके सामने नीले-हरे पानी के विस्तार पर जहाज़ की ओर बढती दो नौकाएं. एक जादुई सम्मोहन जैसी स्थिति. हम देश की मुख्य भूमि से 400 किमी. दूर लक्षद्वीप द्वीप-समूह की राजधानी कवरत्ती आ पहुंचे थे. लक्षद्वीप को धरती के स्वर्गों में से एक माना जा सकता है. हमने ये यात्रा अपने देश के अद्भुत भौगोलिक विविधता का एक अनोखा व् उत्तेजक पहलू छूने के लिए चुनी थी. कोरल (मूंगा) द्वीपों का अपना विशिष्ट प्राकृतिक सौन्दर्य तो है ही, जैविक विविधता को जलीय-जीवन में देख पाने का अवसर इन्हें सैलानियों और प्रकृति-प्रेमियों के लिए ख़ास बनाती हैं. लक्षद्वीप अकेला ऐसा कोरल द्वीप समूह है जहां मूँगों द्वारा निर्मित ज़मीन के गिर्द उथले स्वच्छ पानी के लैगूनों में समुद्री जीवों का विशाल जीवंत संसार बेहद आसान पहुँच में है. उधर द्वीपों पर नारियल और पाम के पेड़ों का झुरमुट और मक्

साहित्यम होली विशेषांक २०१६ से

ये सीटी-वादक – कमलेश पाण्डेय आप ही बताईये- इन चंदूलाल का क्या करें?  ये हर वखत चिंता में सुलगते रहते हैं. इनकी चिंता है कि कोई कुछ कर कर रहा है तो क्यों रहा है. कहीं भी कुछ हो क्यों रहा है. ये विकल्प-शास्त्र में पीएचडी हैं. इनके जाने कोई आदमी, संस्था, पार्टी या खुद सरकार ही कुछ करने की ठान ले तो तुरंत-फुरंत घोषणा कर देते हैं कि ये तो गलत हो रहा है...इसे तो होने का कोई अधिकार ही नहीं. इसके बाद अपने विकल्पों की पिटारी खोलकर बताने लगते हैं कि इस काम के एवज़ तो ये, वो या फिर इत्ते सारे काम इकट्ठे भी हो सकते हैं.  उद्यमी लोगों की मेहनत को पलीता लगाते चिर-चिन्तक चंदूलाल हर संभव जगह पर घुमते-फिरते या धरने पर बैठे हैं. छोटू-उस्ताद की मंडली ने मोहल्ले में अष्टयाम का आयोजन किया. चेलों ने बस बाज़ार की दुकानों का एक फेरा लगाया. चंद आँखें व बंधी मुठ्ठियाँ दिखा के और “धरम का काम है” की रसीद देके बातों-बातों में पचासेक हज़ार इकठ्ठे हो गए. काम शुरू हो इससे पहले ही चंदूलाल प्रकट हुए और सीटी बजाते घूमने लगे कि ये गलत हो रहा है. मोहल्ले में सबको बताने लगे कि अष्टयाम के बदले इतने पैसे में जाने

जे एन यू, उसकी विचारधारा और बदलते सुरों से अपनी पुरानी पहचान को जोड़ने की कोशिश में कुछ लेख लिखे हैं ..

8 मार्च 2016 जेएनयू के अपने युवा दोस्तों के लिए- दोस्तों- मान गए भाई, खूब बोले, जबरदस्त बोले. जुमले का जवाब चुभते हुये जुमले, नारे का जवाब और जब्बर नारा और बॉडी लैंग्वेज के तो क्या कहने, नाट्य-शास्त्र के टर्म-पेपर में एकदम ए-प्लस लायक. देश के मूल-भूत सवालों को उठाकर ताज़ा बहस के मूल सवाल को पीछे धकेल दिया तुमने. देश से आज़ादी या देश में आज़ादी हुई कि न हुई- वो भूली दास्ताँ यानि बोले तो एक सर्वहारा क्रान्ति जरुर हो गई. कई दशकों से इस सर्वहारा क्रान्ति का वैचारिक पोषण देश रूपी जंगल में जे एन यू नामक द्वीप की परिधि में ही होता रहा है. कैपस में घुसते ही क्रान्ति के गर्म झोंकों से स्वागत होता रहा है. चाहे वो धरती पर कहीं हो रहा हो-‘हर जोर-ज़ुल्म के टक्कर में’ यहाँ कुछ लोग जुट जाते हैं संघर्ष के नारों के साथ भाव-भीने, ओज और तंज तथा बुद्धिमत्ता से भरे भाषण (जैसा तुम्हारा था) होने लगते हैं. गंगा-ढाबा क्रान्ति के परिनिर्वाण का घाट है. उबलती चाय, सुलगती बीडियों और दहकते जुमलों की आहुति के साथ पूरी दुनिया के बुर्जुआ-जनों की चितायें जली हैं इस मणिकर्णिका पर. दुनिया भर की ग़रीबी और शोषण के विरोध