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भारतीय रेल पर व्यंग्य न लिखा तो व्यंग्यकार कहलाने पर संदेह उभरता है, सो एक लिख डाला.

हमारी रेल - एक निबंध लगभग डेढ़ सदी से हमारे देश में यातायात के लिए लोग लोहे की बनी और लोहे की पटरी पर रेंगने वाली एक गाड़ी का उपयोग करते हैं जिसे रेलगाड़ी कहते हैं। इसमें एक इंजन होता है बाक़ी डिब्बे। इंजन आगे-आगे दौड़ता है तो पीछे-पीछे डिब्बे अपने-आप ही दौड़ने लगते हैं। इंजन को चलाने वाला चालक या सरल शब्दों में ड्राइवर कहलाता है। सबसे आखि़री डिब्बे में एक व्यक्ति बैठता है , जिसके पास लाल और हरे रंग की झंडियाँ और बत्तियाँ होती हैं , जिन्हें वह हिलाता-डुलाता रहता है। इस व्यक्ति को सरल या कठिन कैसे भी शब्दों में ‘ गार्ड ’ ही कहते हैं। हरी बत्ती या झंडी के हिलते ही गाड़ी चलने लगती है , जबकि लाल या बिना कोई झंडी-बत्ती हिले चुपचाप खड़ी रहती है। जलती- बुझती लाल , हरी और पीली बत्तियों के कुछ खंभे रेलगाड़ी को राह बताते उसकी राह में जहां-तहां खड़े रहते हैं। गार्ड और खंभों द्वारा मार्गदर्शित होने के बावजूद आम तौर पर पटरियों पर ही चलने वाली ये गाडि़यां कभी-कभी पटरी छोड़ खेतों- खलिहानों और क़स्बों-गलियों में घुस जाती हैं , या नदियों में कूद पड़ती हैं। कभी-कभी तो एक ही पटरी पर दो गाडि़यों का मि

मित्रों ने सामयिक मुद्दों पर व्यंग्य की जुगलबंदी शुरू की तो कुछ प्रसंगों पर मैंने भी अपना सुर आलापा..

व्यंग्य की जुगल-बंदी -"कड़ी-निंदा " (कड़ी निंदा पर जुमलों, लेखों और चुटकुलों से पके पाठकों से क्षमा-याचना सहित; वे चाहें तो इस व्यंग्य लेख की कड़ी निंदा कर सकते हैं) वैकल्पिक अस्त्र-शस्त्रों की कक्षा में आचार्य ड्रोन ने अपने शिष्यों को ऐसे अस्त्रों में सर्वोत्तम निंदा-अस्त्र के विषय में ज्ञान देते हुए कहा, “हे शस्त्र चलाने के बदले शयन को प्राथमिकता देने वाले अकर्मण्यों, आज तुम्हें एक ऐसे अस्त्र के विषय में बताता हूँ, जिसे ज्ञानीजन आदिकाल से ही अस्त्र-शस्त्र के बदले प्रयोग में लाते रहे हैं. यद्यपि इसे एक समूह में ही अनुष्ठानपूर्वक चलाने का विधान है, परन्तु कई महारथी इसे अकेले चलाना पसंद करते हैं. ऐसे महारथियों के चेले उनकी दक्षता पर ‘अहो-अहो’ की ध्वनि कर इस अस्त्र का प्रभाव वर्धित करते रहते हैं. शास्त्रों में निंदा को एक रस के रूप में भी वर्णित किया गया है, जिसका सामूहिक रूप से पान करने से आत्मबल में वृद्धि होती है. निंदा ये भ्रम उत्पन्न कर कि निंदा की मार से शत्रु क्षीण-अवस्था को प्राप्त हुआ है, निंदक को प्रफुल्लित कर उसे स्वास्थ्य-लाभ कराती है. निंदा रस के इस सद्गुण के कारण नि

माँ

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बीस बरस हुए जब आजकल मुझमे रहने वाली माँ इसी दुनिया में रहती थी. उन दिनों उसने मेरे लिए एक अलग दुनिया रच रखी थी जहाँ मैं गाहे बगाहे जाकर अपनी उलझनें, चिंताएं और कुछ आत्मस्वीकृतियाँ छोड़ आता था और बाक़ी दुनिया के लिए तरोताजा होकर निकलता था. पांच बच्चों की रोटी, कपड़े, नींद, सेहत, पढ़ाई, संस्कार, कैरियर और एक मुकम्मल इंसान बनाने की ज़िम्मेदारी से लदी फदी माँ कब अपने समाज और परिवेश में प्रवेश करती और वहां भी खुशियाँ बाँट कर सबके दिल में जा बैठती, मैं समझ नहीं पाता था. वो पढ़ती-लिखती, तीज-त्योहारों पर मेहंदी-महावर लगाकर सुरीले गीत गाती, परम्परा की कलाओं से घर सजा देती और हर छोटे बड़े मौके पर कुछ ख़ास बना-रच कर वह दिन उत्सव सा कर देती. अपने परिवार और रिश्ते-नातों की खुशी-गमी से बचा वक़्त बेखटके कालोनी के लोगों में बांटती. वक़्त ही नहीं, पकवान और किस्से भी. उसके दही बड़े और मालपुए चखने को कतारें लग जाती, जो होली पर वो पूरी रात कडाही चढ़ा कर अकेले ही बना लेती. व्रतों त्योहारों को तो वो सामूहिक उत्सवों में बदल देती. छठ पर्व पर घाट जाते हुए उसके साथ पूरी कालोनी जुलूस की तरह चलती थी, और तीन दिन तक लोगो