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प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका "कथाक्रम" के ताज़ा अंक में व्यंग्य के वर्तमान परिदृश्य पर मेरा एक आलोचनात्मक आलेख, जो हिंदी व्यंग्य के स्वरूप, व्यंग्य लिखने का कारण और एक समालोचक के तौर पर हिंदी व्यंग्य से मेरी आशाओं आशंकाओं का संकलन भी है.

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व्यंग्य लिखना-पढ़ना: क्या बस यों ही? हिंदी व्यंग्य साहित्य लेखकों और पाठकों की दृष्टि से खासा समृद्ध प्रतीत होता है. छोटी मझोली पत्रिकाओं की घटती आवृत्तियाँ और नियमित बड़ी पत्रिकाओं के लगभग अवसान के बावजूद ऐसा कहना पड़ रहा है तो इसके  पीछे अखबारों के दैनिक कालम, साप्ताहिक परिशिष्ट और यदा-कदा निकलने वाले व्यंग्य- विशेषांक हैं. लिखने  वालों के लिए स्पेस की कोई कमी है, मुझे तो नहीं लगता. पढ़ने वाले भी हैं, जिसका प्रमाण इनका छपना-बिकना है. उस पर सोशल-मिडिया, वर्चुअल ग्रुप, इन्टरनेट पर साहित्य कोष और व्यक्तिगत ब्लॉग. लिखने–पढने की अनंत संभावना. पर क्या हिंदी व्यंग्य इस अभूत-पूर्व संचार-क्रान्ति का उपयोग कर अपना समुचित विकास कर पा रहा है? क्या बदलता दौर उसमें पूरी तरह धड़क रहा है? कहीं बदलाव का दबाव उसे अपनी साहित्यिक परम्पराओं और मानकों के राजमार्ग से उतर कर भटकाव की पगडंडियों की ओर तो नहीं मोड़ रहा? कहीं वर्तमान व्यंग्य लिखने-छपने की असीम सम्भावनाओं के बीच अति-उत्साह का शिकार होकर केवल तात्कालिकता के जाल में तो नहीं उलझ गया और समय की धार में छुपे शाश्वत मूल्यों के सीप को त्याज्य  समझने लग