भारतीय रेल पर व्यंग्य न लिखा तो व्यंग्यकार कहलाने पर संदेह उभरता है, सो एक लिख डाला.

हमारी रेल - एक निबंध

लगभग डेढ़ सदी से हमारे देश में यातायात के लिए लोग लोहे की बनी और लोहे की पटरी पर रेंगने वाली एक गाड़ी का उपयोग करते हैं जिसे रेलगाड़ी कहते हैं। इसमें एक इंजन होता है बाक़ी डिब्बे। इंजन आगे-आगे दौड़ता है तो पीछे-पीछे डिब्बे अपने-आप ही दौड़ने लगते हैं। इंजन को चलाने वाला चालक या सरल शब्दों में ड्राइवर कहलाता है। सबसे आखि़री डिब्बे में एक व्यक्ति बैठता है, जिसके पास लाल और हरे रंग की झंडियाँ और बत्तियाँ होती हैं, जिन्हें वह हिलाता-डुलाता रहता है। इस व्यक्ति को सरल या कठिन कैसे भी शब्दों में गार्डही कहते हैं। हरी बत्ती या झंडी के हिलते ही गाड़ी चलने लगती है, जबकि लाल या बिना कोई झंडी-बत्ती हिले चुपचाप खड़ी रहती है। जलती- बुझती लाल, हरी और पीली बत्तियों के कुछ खंभे रेलगाड़ी को राह बताते उसकी राह में जहां-तहां खड़े रहते हैं। गार्ड और खंभों द्वारा मार्गदर्शित होने के बावजूद आम तौर पर पटरियों पर ही चलने वाली ये गाडि़यां कभी-कभी पटरी छोड़ खेतों- खलिहानों और क़स्बों-गलियों में घुस जाती हैं, या नदियों में कूद पड़ती हैं। कभी-कभी तो एक ही पटरी पर दो गाडि़यों का मिलन हो जाता है, जिसमें लगे-हाथों कई यात्रियों की आत्माओं का परमात्मा से मिलन भी हो जाता है।

डिब्बों में यात्री भरे हुए होते हैं। इनकी एक आरक्षण-सूची होती है, जिसके अंत में एक प्रतीक्षा-सूची होती है। प्रतीक्षा-सूची में सूचित यात्री पहले प्लेटफ़ार्म पर खड़े होकर रेल की प्रतीक्षा करते हैं, उसके बाद यही काम वे रेल पर चढ़कर करने लगते हैं। आगे वे प्रतीक्षारत- स्थिति में ही यात्रा करते हुए उस स्थल तक पहुंच जाते हैं, जो उनका गंतव्य होता है। यह स्पष्ट नहीं है कि आगे चलकर भी उनकी प्रतीक्षा ख़त्म होती है या नहीं। आरक्षण-सूची वाले लोगों को एक बर्थ मिली होती है जिसपर वे अपनी-अपनी क्षमतानुसार टिक, बैठ, लेट या सो कर यात्रा करते हैं। इन दो क़िस्म के यात्रियों के अलावा बहुत-से और यात्री भी होते हैं, जो डिब्बों में ख़ाली स्थानों की पूर्ति करते हैं। ये ख़ाली स्थान डिब्बे के फ़र्श पर, शौचालय के अंदर और बाहर, पावदानों पर, लेटे या सोए यात्रियों के सर या चरणों के पास होते हैं। यात्रियों की देखभाल करने को काला-कोट पहने एक रेल कर्मचारी भी होता है, जो आरक्षण-सूची लहराता, नोटों से भरी जेब संभालता नट की भांति डिब्बे के एक छोर से दूसरे छोर तक आता-जाता है, हालांकि डिब्बे में यात्रियों के सिवा किसी अन्य वस्तु का ओर-छोर कहीं दिखाई नहीं पड़ता। उस कर्मचारी की जेब में भरे नोट उन बर्थों की नीलामी में मिले होते हैं जिनके अधिकारी पिछले स्टेशनों पर छूट चुके होते हैं। उन नोटों में वे नोट भी शामिल होते हैं जो उसे कुछ यात्री उन टिकटों के एवज़ में देते हैं जो उन्होंने नहीं खरीदे।

रातों में रेल-यात्री भी सोते हैं। जो जहाँ लेटा, खड़ा, अड़ा, पड़ा, लटका या अटका होता है, वहीं सो जाता है। सचल गाड़ी में यह एक निश्चल स्थिति होती है, जिसमें उस वक़्त तक कोई व्यवधान उपस्थित नहीं होता, जब तक ऊपर लटका हुआ कोई यात्री नीचे पड़े हुए यात्रियों के ढेर पर ही न गिर पड़े। ऐसा होने पर कुछ कोलाहल और थोड़ी हाथा-पाई के बाद जल्द ही स्थिति नियंत्रण में आ जाती है और सभी मिल-जुल कर फिर सो जाते हैं। गाड़ी जो है, सो चलती-रुकती रहती है। चलते समय गाड़ी के पहियों की ताल पर कुछ यात्री खर्राट-सुर से संगत करते रहते हैं। गाड़ी के रुकते ही कुछ जाग्रत यात्री नीचे से ऊपर चढ़ आते हैं और सोए यात्रियों के साथ दूध में पानी की तरह मिल जाते हैं। गाड़ी के चलते ही ये भी झट सो जाते हैं। रात भर खट-खट, खुर्र-खुर्र के अलावा डिब्बे में बीच-बीच में बाहर से आती गर्म-चाय की चीख़भी गूंजती रहती है। ऐसा तभी होता है, जब गाड़ी किसी स्टेशन पर जा खड़ी होती है। कभी-कभी डिब्बे में कुछ अलग क़िस्म के जाग्रत यात्री चढ़ते हैं, जिनके हाथों में देसी कट्टे या चाकू होते हैं। इन्हें डकैत कहा जाता है। ये पहले तो सोते सहयात्रियों को जगाते हैं, फिर अपने हथियारों की मदद से चलती गाड़ी में ही उनके कुछ सामानों का बोझ हल्का कर देते हैं। आगे वे इन बोझों को समेट कर रुकी या चलती गाड़ी से उतर कर चले जाते हैं। इस घटना के बाद आम-तौर पर यात्री दुबारा नहीं सोते। बोझ हल्का करने वाले उद्योग को लघु-स्तर पर करने वाले कुछ महानुभाव सोए यात्रियों को जगाते भी नहीं, चुपचाप उनका बोझ हल्का कर चल देते हैं।

गाड़ी में कुछ डिब्बे ऐसे भी होते हैं, जिनकी आरक्षण-सूची वग़ैरह नहीं होती। ये डिब्बे सोने या बैठने के ही नहीं, ठुंसने के उद्देश्य से भी उपयुक्त होते हैं। इनमें भी यात्री और उनका सामान ही भरा होता है। इन्हें बाहर से देखने पर ऐसा मालूम होता है मानों डिब्बे में यात्रियों का मलबा भरा हुआ है। इन डिब्बों के रिक्त स्थानों में तरह-तरह की बूएं भरी होती हैं जो यात्रियों के शरीर के विभिन्न भागों से रिसी हुई होती हैं। रातों में इन डिब्बों में भी लोग ऊपर बताई गई स्थितियों में शयन करते हैं।

सुबह होते ही सभी डिब्बों के यात्री जाग पड़ते हैं। प्रति शौचालय मात्र सौ व्यक्तियों का अनुपात होने की वजह से जल्द ही डिब्बे में घमासान की-सी स्थिति उत्पन्न होती है। कारण कि जल एवं मल-संकट उपस्थित हो जाता है। चूँकि गाड़ी बीच-बीच में चलती भी रहती है, यात्री उन खेतों का उपयोग नहीं कर पाते, जिनसे होकर गाड़ी गुजर रही होती है। आगे चलकर यात्री अपने ख़ाली हुए पेटों को भरने की फ़िराक़ में लग जाते हैं। इस उद्योग में उन्हें सहयोग देने को तत्पर कई लोग डिब्बे में अनेक आकार-प्रकार के थैले, डिब्बे व टोकरियां आदि लादे आ पहुँचते हैं। यात्रा जो है सो गाड़ी के संग-संग या उस पर सवार जारी रहती है। साथ-साथ यात्रियों के मुँह भी चलते रहते हैं। ये मुँह खाने या बोलने की वजह से चलते हैं। दोपहर होते-होते यात्रियों से बचा-खुचा फर्श मूंगफली और केले-संतरे के छिलकों से ढंक जाता है। कुछ बेवकूफ़ यात्री इन चीज़ों को खिड़की के बाहर भी फेंकते हैं। कुछ लोग खाने-बोलने की बजाय ताश खेलते हुए यात्र करना पसंद करते हैं, हालांकि ऐसा करते हुए भी ये लोग बाक़ी दोनों काम यानी खाना और बोलना भी साथ-साथ करते रहते हैं। ताश की बाज़ी फ़र्श, रूमाल, गोद, किसी की पीठ या कहीं भी बिछाई गई होती है। दिन के वक़्त डिब्बे के भीतर कुछ अलग प्रकार का संगीत गूंजता रहता है, जो कई तालों, ध्वनियों, आलापों और स्वरों की जुगलबंदी-सा होता है। -- खट-खट, ऊँ-ऊँ, हा-हा--- अबे तेरी तो--- तड़ाक-धुम-धड़ाम--- चाई--ई---ई--अः---- बोलो ठंढा कोल्ड ड्रिंक ---। अम्मा! भूखे को कुछ दे दे बाबा--- चल छईंयाँ-छईंयाँ-छईंयाँ-छईंयाँ ---। अंतिम दो प्रकार के स्वर वे लोग लगा रहे होते हैं जो यात्रियों का बोझ हल्का करने के लघु-उद्योग की दिन वाली शाखा से जुड़े होते हैं। कुछ यात्री आपस में यों घुले-मिले होते हैं कि परिवार-जन लगते हैं, तो कुछ परिवार-जन कुछ दूसरे परिवार-जनों से ऐसे पेश आते हैं मानो जानी दुश्मन हों। फिर भी यात्रा जो है सो चलती रहती है और पूरे सौहार्द्रपूर्ण माहौल में ही चलती है।

दिन के समय भी रेल चलती रहती है, हालांकि रेल के भीतर और बाहर की कुछ शक्तियां उसे ऐसा करने से रोकती हैं। भीतर की जो शक्तियां हैं उनमें कुछ विशेष प्रकार के यात्री होते हैं जो आरक्षण-सूची वग़ैरह से बहुत ऊपर उठे हुए होते हैं। इन्हें लोकल यात्री कहते हैं। पटरी समेत रेल का हर अंग इनके पिताओं की जाग़ीर का हिस्सा होता है।  पूरी यात्रा के दौरान ये लोकल ही बने रहते हैं और लोकल ही किस्म की हरक़तें करते हैं। ये लोग बर्थों पर पहले से कब्जा किए हुए यात्रियों को धमका और पीट कर उनकी गुस्ताख़ी की सज़ा देते हैं। इस अभियान में कई बार वे उन यात्रियों को उठाकर डिब्बे से बाहर भी फेंक देते हैं। अपने-अपने घरों के पास सहूलियत से उतरने के इरादे से ये लोग ख़ुद ही श्रम कर होस-पाइप काटते हैं, जिससे रेल रुक जाती है। जहां तक बाहरी शक्तियों का मामला है, उनमें पूरा देश ही शामिल है। अनेक पवित्र उद्देश्यों के लिये आंदोलन करने वाले सबसे पहले रेल या उसकी पटरी पर ही कृपा करते हैं। कृपा रेल पर हो या पटरी पर, दोनों ही मामलों में रेल रुक जाती है। कई बार विशेष रुप से केवल रेल रोको आंदोलनआयोजित किया जाता है। कभी ऐसा भी हो जाता है कि किसी महान नेता को रेल-यात्रा के दौरान कष्ट पहुंच जाता है तो उनके भक्त कुपित हाकर रेल को रोक देते हैं। अक्सर रेल दिन में यों ही तफ़रीह के लिहाज़ से प्लेटप़फ़ार्म या सिग्नल पर मज़े में रुकी रहती है। बाहरी शक्तियों में प्राकृतिक शक्तियाँ तो इतनी बलशाली हैं कि ज़रा सा कुहासा छा जाए तो रेल खुद ही धरना देकर बैठ जाती है. इन सभी शक्तियों के सामूहिक सहयोग से रेल जो है वो दिन में दो घंटे का रास्ता महज़ आठ घंटे में ही तय कर लेती है।

....रेल-यात्रा के उपर्युक्त पहलुओं को ध्यान में रखते हुए प्रोफ़ेसर झेलकर की अध्यक्षता में बनी समिति ने कई क्रांतिकारी सुझाव दिए हैं। समिति की राय में डिब्बों की डिज़ाइन में कुछ बुनियादी परिवर्तनों की जरूरत है। अंतिम रास्ता यही है कि डिब्बे में से कुछ अनावश्यक जगह घेरने वाली चीज़ें हटा दी जाएं- जैसे सीटें, खिड़कियां, छत और दीवारें। शौचालयों को तो तत्काल प्रभाव से मिटा दिया जाए। समिति यह भी कहती है कि आरक्षण की कुप्रथा हटा दी जाए और बर्थ से अभिप्राय उस स्थान का लिया जाए जिसपर यात्री अपने सामान सहित स्वतः ही अधिकार कर ले। इसके लिए रेलवे अलग से अधिकार-शुल्क ले सकती है। समिति का मानना है कि यात्रियों की आबादी, रेलों की सामान्य गति और समय की पाबंदी को देखते हुए यही ठीक रहेगा कि यात्री सुविधानुसार स्वयं ही ज़ंजीर खींच कर गंतव्य पर उतरने, खाने-पीने, लघु-दीर्घ शंकाओं से निबटने आदि का ध्यान रख लें। इस दृष्टि से गाडि़यों के खड़े होने के लिए स्टेशन और प्लेटफ़ार्मादि की जरूरत नहीं रहेगी। चूंकि इसके बाद पटरी पर सिर्फ़ गाड़ी ही रह जाएगी, टिकट आदि की बिक्री बंद कर दी जाए। टीटी नामक कर्मचारी डिब्बे के दोनों छोरों पर लगे दो खंभों से लटकी ट्राली पर बैठ पूरे डिब्बे पर मंडराता हुआ यात्रियों से सीधे पैसे वसूले और श्रद्धानुसार खुद ही ख़ज़ाने में जमा करा दे।

समिति ने उन डिब्बों के संदर्भ में भी अनुशंसाएँ की हैं, जिनका ऊपर जि़क्र नहीं हुआ है। ये उच्च श्रेणी के डिब्बे माने जाते हैं। एकरूपता की दृष्टि से इनका डिज़ाईन भी खुला-खुला-सा ही हो, क्योंकि इससे ये स्वतः वातानुकूलित होंगे। जहाँ अन्य डिब्बों में पुआल या कुछ भी न बिछाया जाए, इनके फ़र्श पर कालीन, गद्दे और मसनद हों। पर्यटन-विकास की दृष्टि से वहां मुजरे और हुक्क़ों का भी प्रबंध किया जा सकता है। चूंकि इस श्रेणी में ज़्यादातर पास-धारी नेता व रेल-अधिकारी, या दौरे पर निकले बड़े अफ़सर ही सफ़र करते हैं, टिकटों का झमेला भी न ही रखा जाए।

झेलकर-समिति आगे और भी बहुत कुछ कहती है, पर अब मैं चुप होता हूँ. आप अभी-अभी कोई रेल का सफ़र झेलकर लौटे हो सकते हैं। आपमें से उन लोगों से मुझे कुछ नहीं कहना जो उच्च-श्रेणी के आरक्षित वातानुकूल डिब्बे की आरामदेह बर्थ पर उम्दा भोजन और मीठी नींद के मज़े लेकर आए होंगे। हो सकता है, समय से भी आ पहुंचे हों। पर मैं तो अपनी जनता-गाड़ी में ही यात्रा पर निकलने वाला हूँ। प्रतीक्षा सूची में जगह मिल गई है, सो भरपूर आत्मविश्वास कि कुछ न हुआ तो इसी जगह विशेष पर जगह बना कर पूरी यात्रा संपन्न कर लूंगा. बस कुछ तैयारियाँ करनी बाक़ी हैं - जैसे मंदिर जाकर ईश्वर से पापों के लिए क्षमा मांगना, वसीयत करना और जीवन-बीमा पालिसी लेना। बाक़ी एक आम भारतीय रेल-यात्रा का परंपरागत तामझाम, जैसे मोबाइल में भरपूर डाटा-पैक, सबके वास्ते बिस्तर-तकिए, दो-तीन दिन लायक़ खाने-पीने का टोकरा, फल-पानी-दूध, कुछ मोटे जासूसी उपन्यास, ताश-शतरंज और बच्चों के खिलौने वग़ैरह भी इकट्ठा करने हैं। सब कुछ सामान्य रहा, यानी रेल की आरक्षण-सूची में मेरा नाम छप गया, रेल पटरी पर ही चली मगर उसी पटरी पर किसी और रेल से नहीं मिली, तो लौट कर फिर मिलते हैं।  



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