मित्रों ने सामयिक मुद्दों पर व्यंग्य की जुगलबंदी शुरू की तो कुछ प्रसंगों पर मैंने भी अपना सुर आलापा..

व्यंग्य की जुगल-बंदी -"कड़ी-निंदा "
(कड़ी निंदा पर जुमलों, लेखों और चुटकुलों से पके पाठकों से क्षमा-याचना सहित; वे चाहें तो इस व्यंग्य लेख की कड़ी निंदा कर सकते हैं)
वैकल्पिक अस्त्र-शस्त्रों की कक्षा में आचार्य ड्रोन ने अपने शिष्यों को ऐसे अस्त्रों में सर्वोत्तम निंदा-अस्त्र के विषय में ज्ञान देते हुए कहा, “हे शस्त्र चलाने के बदले शयन को प्राथमिकता देने वाले अकर्मण्यों, आज तुम्हें एक ऐसे अस्त्र के विषय में बताता हूँ, जिसे ज्ञानीजन आदिकाल से ही अस्त्र-शस्त्र के बदले प्रयोग में लाते रहे हैं. यद्यपि इसे एक समूह में ही अनुष्ठानपूर्वक चलाने का विधान है, परन्तु कई महारथी इसे अकेले चलाना पसंद करते हैं. ऐसे महारथियों के चेले उनकी दक्षता पर ‘अहो-अहो’ की ध्वनि कर इस अस्त्र का प्रभाव वर्धित करते रहते हैं. शास्त्रों में निंदा को एक रस के रूप में भी वर्णित किया गया है, जिसका सामूहिक रूप से पान करने से आत्मबल में वृद्धि होती है. निंदा ये भ्रम उत्पन्न कर कि निंदा की मार से शत्रु क्षीण-अवस्था को प्राप्त हुआ है, निंदक को प्रफुल्लित कर उसे स्वास्थ्य-लाभ कराती है. निंदा रस के इस सद्गुण के कारण निंदा-कर्म सदा मनुष्यों की दिनचर्या का अनिवार्य भाग रहा. संतों ने आगे चलकर ये ज्ञान भी दिया कि निंदक को नियरे ही रखने से निंदा का सही डोज़ प्राप्त होता है जिससे चित्त और स्वास्थ्य उत्तम रहता है. इस प्रकार निंदा करने और करवाने दोनों को स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद जान कर मनुष्य इसके अनुष्ठान में युद्ध स्तर पर जुट गया. इस सीमा तक कि वह युद्ध में भी अस्त्र-शस्त्रों की जगह निंदा पर ही अधिक आश्रित रहने लगा. परिणाम अपेक्षित ही रहा, अर्थात अति सर्वत्र वर्जयेत. कालान्तर में अन्य वस्तुओं के साथ निन्दास्त्र का प्रभाव भी क्षीण पड़ने लगा. कारण चाहे ये हो कि निंदा के लक्ष्य शत्रुओं की चमड़ी मोटी और चिकनी हो गई या ये कि निंदा-रस में मिलावट के कारण उसका विशुद्ध सत्व नष्ट हुआ, बेचारे निंदक हताश होने लगे. निंदा के प्रहार फुस्स होने लगे. शत्रु के ठोस व् कड़े अस्त्र-शस्त्रों के सामने निंदा अंततः मुलायम सिद्ध हुई.
“तब निंदा कर्म को अपरिहार्य जानते हुए कलियुग के चक्रवर्ती सम्राटों ने ज्ञानीजनों से मंत्रणा कर उसे अधिक प्रभावी, मारक और घातक बनाने के उपायों पर विचार किया. मनोविज्ञानियों के परामर्श से निंदा में कड़ी भर्त्सना और कड़ी ही चेतावनी आदि मिला कर गीले आटे-सी पिलपिली हो चुकी निंदा को खूब कड़ा गूंथा गया. इसमें चुभते व्यंग्य बाण और अपशब्दों के छर्रे मिलाकर उपयुक्त अवसर और स्थान के टाइमर जोड़ दिए गए. इस प्रकार ‘कड़ी-निंदा’ नामक अत्याधुनिक अस्त्र का निर्माण हुआ जो आजकल मुलायम राष्ट्रों का सबसे प्रिय अस्त्र है. इसे किसी भी प्रकार के युद्ध में प्रयोग में लाया जा सकता है. पड़ोसियों से युद्ध में तो ये चमत्कारिक रूप से प्रभावी है. यदि शत्रु तुम्हारे पृष्ठ- भाग पर धोखे से प्रहार कर भाग जाय, और तुम बिलबिलाने के सिवा कुछ न कर पाओ, तो ‘कड़ी-निन्दा’ का संधान करो. विश्व के कई राष्ट्रों के संघ अपने किसी दबंग सदस्य के कुकृत्यों पर इसी अस्त्र से मार करते हैं. वैसे वे विश्व में किसी भी कृत्य पर इसी अस्त्र का प्रयोग करना उपयुक्त मानते हैं. हे राजकुमारों, जब तुम राजनीति में स्व-पोषित गुंडों द्वारा किसी बर्बरता-पूर्ण कार्य पर प्रेस-जनों द्वारा घेरे जाओगे तब प्रजा की दृष्टि में तुम्हारी छवि और क़ानून से तुम्हारे गुंडों को मात्र कड़ी-निंदा ही बचा सकती है. राजनीतिक दिनचर्या में आरोप-प्रत्यारोपों के गुरिल्ला युद्ध में तो कड़ी-निंदा ही एकमात्र और श्रेष्ठतम अस्त्र है. 
“जैसा मैं विलम्ब से तुम्हारे मूढ़ मष्तिष्क में ठूंसने का प्रयत्न कर रहा हूँ, कड़ी-निंदा अस्त्र का निर्माण तत्काल, बल्कि तत्क्षण ही संभव है. इसके लिए सर्वप्रथम एक चपल व् कटु जिव्हा तथा तीक्ष्ण व् लंठ-प्रवृति वाले प्रवक्ता का चयन करो. परिस्थितिनुसार प्रेस-कांफ्रेंस आयोजित कर उसकी जिव्हा के मांझे में ढील दे दो. उपरोक्त गुण-सपन्न होने की स्थिति में तुम स्वयम भी ये कर्म कर सकते हो. ध्यान रहे उमड़ते-घुमड़ते जनाक्रोश का कारण बनी किसी घटना पर कड़ी निंदा का संधान करते हुए प्रवक्ता की वाणी आक्रोश और उत्तेजना से सनी रहे. ये कभी न भूलो कि ये कड़ी निंदा तुम उस कार्रवाई के बदले कर रहे हो जो अन्यथा तुम ठोस अस्त्र-शस्त्रों से उस घटना के प्रतिकार में करते. अतः प्रयास रहे कि कड़ी निंदा करने वाली वाणी में उन सभी न चलाये गए अस्त्र-शस्त्रों की मारक क्षमता हो. जिव्हा के अतिरिक्त बिना कुछ हिलाए ही शत्रु-प्रहार के मुख-भंजक प्रत्युत्तर का प्रभाव उत्पन्न हो जाए. 
 “किन्तु, हे कलियुग की कुटिल राजनीति के नौनिहालों, भविष्य-द्रष्टा के रूप में एक चेतावनी भी देता हूँ. जिस प्रकार सामान्य या मुलायम निंदा से शत्रुओं का केश भी बींका नहीं होता, कड़ी निंदा भी धीरे-धीरे प्रभाव-हीन होती जायेगी. इसका संधान करने पर शत्रु तो क्या प्रजाजन भी हँसेंगे और इसकी खिल्ली नामक वस्तु को उड़ाने लगेंगे. पर नर हो या वानर, तुम निराश न होना. आधुनिक काल के प्रशासक, राजनयिक और चिंतक मिल कर निंदा को और कडा करने का कोई न कोई उपाय अवश्य ढूंढ लेंगे. ये नई घोर, घनघोर या कड़कड़ाती निंदा आने वाले कालों में सामूहिक नर-संहारों और अतिघोर बर्बर कृत्यों से जन्में जनाक्रोशों को भी शिथिल करने में सक्षम होगी.
“अब आज की परीक्षा का प्रश्न- 
“मेरे द्वारा कहे गए इस प्रसंग की कड़ी निंदा करो.”

2. #व्यंग्य की जुगलबंदी: हवा-हवाई उड़ान और चप्पलें
चप्पलें हवा में उड़ती मुझे ललकार रही हैं कि मुझपर लिखो. ...कि अब वे सिर्फ नाम की हवाई नहीं रहीं, सचमुच हवाई उड़ान पर हैं. लाल-पीले, हरे-नीले फीतों वाले, चमड़े की चमचमाती डिजायनर चप्पलें, कोल्हापुरी, साहित्यिक-सांस्कृतिक सभाओं में पांवों की शोभा बढाने वाली, जूतियों को शर्मिन्दा करने वाली चप्पलें. चटपटी चटाखेदार ख़बरों में छपाके मारती चप्पलें गुहार कर रही हैं कि देखो, सबने लिख लिया. जितनी जोड़ियां देश में हम हैं उससे जियादा लफ्ज़ लोगों ने वनलाइनरों से शुरू कर लम्बे-लम्बे लेखों में जड़ दिए. जितनी सहज, अनौपचारिक और बेडौल हम हैं लोगों ने उतनी ही टेढ़ी-मेढ़ी,खिंची-तनी बातें मुझ पर लिख डालीं हैं. तुम क्यों लेखक-धर्म से च्युत होते हो. लिख मारो न कुछ.
मैंने पहली बार अपनी वाली चप्पल को गौर से देखा. तलवा भर ज़मीन घेरे थी, ईंच भर उंची, ढीले ढाले फीतों का हार पहने मेरे ज़मीन से जुड़ने के दरम्यान पड़ी थी. पैरों में फंसा कर चल देने से पहले इनकी तरफ कोई देखता भी नहीं. आज मैंने देखा. पांवों तले दबी एकदम निरीह-सी,जैसे दम साधे पड़ी हों. कोई उत्तेजना या उकसावा नहीं वजूद या मिजाज़ में. फिर आखिर ये हंगामा है क्यों बरपा?
पता चला कुछ रोज़ से ज़मीन से उठकर चप्पलें पहले हाथों में आईं थी और अब हवा में उड़ने लगीं हैं. हवाई तो ये कहलाती थीं पर शायद यों कि पैरों को जूतों की तरह बाँध कर नहीं रखती थीं, हवा लगने देती थीं. अब जैसे वो हवा इन्हें ही लग गई, या फिर अपने हवाईपन को इन्होने गंभीरता से लेना शुरू कर दिया. बहरहाल, चप्पलें वीआईपी के पैरों में हो या हाथ में, इनका उड़ना समझ में आता है. अगर वीआईपी के हाथों में लहरा कर चटाक से आम आदमी के ज़िस्म पर गिरें तब तो ये टीवी चैनलों की टीआरपी और सोशल मीडिया के टिप्पणीकारों की कल्पनाशीलता को भी आसमान छुआ सकती हैं. कुछ साल पहले चप्पलों के बड़े भाई जूतों ने उलटी दिशा में यानी आम आदमी से वीआईपी की ओर उड़ान भर कर सनसनी फैला दी थी. ऐसा ही समां बंधा था तब भी. लोगों ने जूतों पर प्रबंध तक लिख डाले थे. पर मुझे लगता है, फिलहाल चप्पलें अपनी मामूली हैसियत को तौल रही हैं. बड़ों के हाथों और बयानों में आकर मिली शोहरत से कुछ शशोपंज में भी हैं. ग़रीब आदमी को बड़ों से तवज्जो मिले तो ज़रा सहम कर ही रिएक्ट करता है. हो सकता है महज हवाई तौर पर हवाई कहलाने वाली ये चप्पलें अपनी भावी हवाई यात्रा को लेकर कुछ उत्तेजित भी हों. पर जन्नत की हकीकत से कुछ वाकफियत तो होगी ही.
एक सवाल चप्पल के वीआईपी के पैरों में होने के विरोधाभास का भी है. यानी कुछ चप्पलें आकार में नहीं चरित्र से हवाई होती हैं. इनकी ‘हवाई’ में एक ‘जहाज’ जोड़ कर देखें तो मामला स्पष्ट होने लगता है. अर्थात ऐसे पैरों में डिजायनर ढंग से होना जो हवा में ही रहते हों. आकार में चप्पल मिज़ाज से सैंडल. चमचम चमकती, मस्त चाल चलती, चटपटी खबरों में चहकती ये संभ्रांत चप्पलें सर्वहारा चप्पलों के बीच अलग ही नज़र आती हैं. उन्हें महज़ एक मामूली चप्पल समझना भूल है. इन्हें पहनने वाले के चतुर और चापलूस चमचा-गण इन्हें सर पर उठा कर चलते हैं और मौक़ा पड़ने पर चूमने से भी नहीं चूकते. अगर प्रस्तावित हवाई-यात्राओं का वाक़ई हवाई चप्पलों से लेना-देना है तो नेशन वांट्स टू नो कि वे किस प्रजाति की चप्पलें हैं.
सर्वहारा और संभ्रांत चप्पलों के बीच की एक प्रजाति चप्पलों में भी है. परम्परागत रूप से मह्त्वाकांक्षी इन मिडिल क्लास चप्पलों की उड़ान कभी भी रुकी नहीं. सपनों की उड़ान को कौन रोक पाया है. सपनों के अलावा ये चप्पलें अक्सर हकीकत में भी उड़ने का मौक़ा खोज लेती हैं. एक संदेह फिर भी रह जाता है. कुछ साल हुए रेलवे ने वातानुकूलित ग़रीब रथ चलवा दिए. माना जाने लगा कि इन पर सफ़र करने वाला ग़रीब ही होगा. दिल्ली-मुम्बई रूट पर इन रथों में कई ग़रीब सेठ लोग यात्रा करते पाए जाते हैं. इसी तरह अब हवाई यात्रा की बारी है. कहीं ऐसा न हो कि केवल डिजायनर हवाई चप्पलें ही यात्रा करती मिलें और नाम तमाम बाक़ी चप्पलों का लगे. इतना तो तय है कि अभी फटी बिवाईयों वाले पैरों को तपती धरती से जलने से बचाने और घिस चुके तलों वाली मरम्मत-शुदा हवाई चप्पलों के दिन इतने नहीं फिरे कि वे किसी ठंढी सड़क पर उतरने से पहले एकदम हवाई जहाज़ पर ही चढ़ जाएँ.
...और ये भी तय है कि अभी तमाम प्रजातियों के हवाई चप्पलों के इस प्रकार हवाई होने में कुछ साल, दशक या सदियाँ लगेंगी. हवा-हवाई साबित होने वाले नारे और भाषण अपनी जगह, इंसानों और उन्हीं की बनाई व्यवस्था की फितरत भी कोई शै है!
3.
#व्यंग्य की जुगलबंदी
लाल-बत्ती और मनुष्य
हमारा देश एक लाल-बत्ती प्रधान देश रहा है. एक लाल-बत्ती चौराहों पर होती है जिसका मतलब रुक जाना या तब तक रुके रहना होता है जब तक बगल वाली हरी बत्ती न जल जाए. पर असली मज़ा तभी है जब लाल बत्ती में ही प्रगति की जाए. कुछ लोगों को तो लाल बत्ती फलांगते चलने में इतना मज़ा आता है कि हरी बत्ती हरी हुई देख मायूस हो जाते हैं. अपना देश भी ग़रीबी, ज़हालात, लालच और अहंकार की भुकभुक कर जलती ढेरों लाल-बत्तियों को फलांगते हुए आगे की दिशा में बढ़ रहा है. देश के केस में कभी ईमानदार सद्प्रयासों और जुझारुओं की ऊर्जा की हरी बत्ती मिल जाती है तो प्रगति की गति और बढ़ जाती है.
एक लाल-बत्ती ऎसी है जो कुछ दिमागों में जलती है. ग़ुलामी की सदियों में भी देश में कुछ बड़े कहाने वालों के दिमाग में अहंकार का लाल-लाल लावा भरा रहता था, जिससे वे किसान-मज़दूरों के ज़मीन-घर फूंकते थे. आजादी के बाद इन्हीं लोगों में से कई देश के भाग्य-विधाता बन गए और दिमाग में खौलते लावे की लाल-बत्ती बना कर अपने वाहनों के सर पर टांक दिया. ये बत्ती वही काम करने लगी जो सामन्ती दौर में उनके लठैत करते थे यानी- रास्ते चलते छोटे-मझोले लोगों को दुर्र-हट कर के दूर भगाना. बत्ती के साथ एक साईरन और जुड़ गया जो बाकायदा चीख-चिल्ला कर गाड़ी की सवारी की दबंगई का ऐलान करता चलने लगा. लाल-बत्ती की टोपी लगी गाड़ियों पर यातायात करते ये विशिष्ट लोग “पहले जां, फिर जानेजां फिर जानेजांना हो गए” की तर्ज़ पर विशिष्ट, फिर अति-विशिष्ट और फिर अति-अति विशिष्ट होने लगे. वैसे इन महानुभावों के लिए नीली और पीली बत्तियों का भी प्रबंध था पर लाल-बत्ती का जलवा अलग ही बिखरता रहा.
ये देखते हुए कि गाड़ी के सर पर लालबत्ती धरी हो तो आदमी खामख्वाह ही वीआईपी दिखता है, इसकी मांग बढ़ने लगी. इस मांग का एक रंग ये भी था कि खुद को विशिष्ट समझने वाले लाल-बत्ती से महरूम लेखक-पत्रकार जैसे जीव भी मांग कर लाल-बत्ती गाड़ी में बैठने लगे. आम लोगों में बढ़ते लाल-बत्ती प्रेम और सम्मान के मददेनज़र सरकारें लाल-बत्ती गाड़ी से धमकाने के अलावा बहलाने-फुसलाने का काम भी लेने लगी. ऎसी गाड़ी पर बैठा कर समारोह-स्थल और कॉकटेल-पार्टी के बाद घर तक छुड़वा दिए जाने वाले बुद्धिजीवी के सर में लाल-बत्ती की भुकभुकाहट का हैंगओवर लम्बे समय तक उसके चिंतन पर हावी रहने लगा.
अचानक वी आई पी वाहनों का सरताज बनी लालबत्तियों का सर से उतर कर कूड़े में शुमार हो जाने से सदमें में पड़े अतिविशिष्टों से संवेदना व्यक्त करते हुए यही कहना है कि लाल-बत्ती तो कभी आपकी गाड़ी पर थी ही नहीं, बल्कि आपके दिमाग में ही जल रही थी. उसको कौन माई का लाल बुझा या हटा सकता है. जो लोग वीआईपी संस्कृति से ख़फा होते हुए भी खौफ़ खाते थे और कहीं मन में चढ़ने को एक लालबत्ती गाड़ी की आस पालते थे उनसे निवेदन है कि वे अपने दिमाग की बत्ती जला लें और उसी के सहारे प्रगति पथ पर बढ़ें. जो लालबत्तियों के अवसान से खुश हैं उनसे भी ये कहना है कि इन गुजर चुकी लालबत्तियों के स्वामियों के लाल-बत्ती-नुमा प्रवृत्तियों का कम से कम सम्मान करने से बचें. हाँ, दुर्घटना से बचाने वाली सच्ची लाल-बत्तियों की कद्र करना अब भी जारी रखें.
4.व्यंग्य की जुगल बंदी 
नायिका सखी सम्वाद- सेल्फी प्रसंग
“हे सखी! देख न उपवन में बसंत आया है!”
“कहाँ है? मुझे उसके साथ एक सेल्फी लेनी है..अभ्भी के अभ्भी!”
“अरी, बसंत का मतलब, उपवन में कैसे मनोहारी फूल खिले हैं!”
“यू फूल!! वो फूल थोड़ी हैं. वे तो अलग-अलग पोजों में मेरी सेल्फियाँ हैं. वो देख, जिसे तू रोज़ समझ रही है, होंठ गोल कर पास से ली थी. और वो जो ट्यूलिप दिख रहे हैं, चेहरा लंबोतरा कर के दूर से ली थी. और उधर गेंदे के जो फूल हैं, जब मुझे पीलिया हुआ था तो अस्पताल में खींची थी. और वो वाली..”
“बस-बस, वो देख तेरा प्रेमी मेघ आसमान से गिरकर खजूर पर लटका है.”
“ओह, काश मैं खजूर पर चढ़ सकती. उसके साथ ऐसे एक्साईटिंग पोज़ में एक सेल्फी तो बनती है. कोशिश करूं क्या?”
“रहने दे, वो लटका-लटका खुद ही अपने फोन से सेल्फी ले रहा है.”
“तब मैं नीचे से ले लेती हूँ!”
“तू यहाँ सेल्फी लेती रह, उधर टपक कर तेरे प्रेमी की इहलीला समाप्त हो जायेगी.”
“तू रहने दे! फेसबुक पर ये सेल्फी अपलोड कर दूंगी तो हज़ार से जियादा लाईक आयेंगे. बाद में एक उसको भी व्हाट्सएप्प कर दूँगी. खुश हो जाएगा.”
“अरे-अरे ये कहाँ खड़ी है तू! पाँव फिसला तो सीधे पर्वत की तलहटी में जायेगी. अस्थि-पंजर भी न मिलेंगे.”
“फोन तो बच जाएगा. इस डेडली एंगल से खिंची सेल्फी अमर हो जायेगी. अपना तो ऐसा है कि प्राण जाय पर सेल्फी न जाए..”
“जितनी सत्य-निष्ठा और समर्पण से तू सेल्फी-संधान में लगी है, अगर श्याम से लौ लगा ले तो उनकी अर्धांगिनी बन जाए.”
“ये क्या बक रही है तू! अगर श्याम के साथ सिर्फ डेट पर जाने को मिल जाए तो गार्डन में, पूल में, बेडरूम में हर जगह इतने एंगल से इत्ती सेल्फियाँ लूं कि पूरा सोसल मीडिया वायरल हो जाय. इत्ता कि मेरे चेहरे के बिना उनका चेहरा पहचाना ही न जाए. इस तरह हम एक हो जायेंगे.”
“हे सखी! इस असार-संसार में मेरे-तेरे जीवन का ही कोई भरोसा नहीं, अपनी इतनी सेल्फियों का तू करेगी क्या? फिर तू अकेली तो नहीं. इस धरा के समस्त नर-नारी इसी खटकरम में लगे हैं. इन अरबों खरबों सेल्फियों से चहूँ-ओर घनघोर फोटो प्रदूषण फैला है. अपनी ही सेल्फियों के अम्बार में तुझे किसी और का मुखमंडल ही नहीं दिखेगा एक दिन. फिर जीवन नैया कैसे पार करेगी तू?”
“जीवन क्या है, एक आई-फोन, एक बढ़िया सेल्फी स्टिक और कुछ सोशल-मीडिया प्रोफाइल्स! मैं अपनी अंतिम सांस तक सेल्फी खींचती रहूंगी. जीवन नैया भंवर में डूबने लगे उस वक़्त तो क्या ग़ज़ब सेल्फी आएगी. चल तू इस एंगल से हट सखी, मुझे अपना काम करने दे.”

5. "रोमियो मर्दन-जत्था "
रोमियो हैवन में पूल-साइड अधलेटे धूप सेंक रहे हैं. जूलियट पास ही पानी पर लेटी जूस के गिलास से सिप ले रही हैं. ब्रम्हांड के इसी ज़ोन में स्वर्ग और जन्नत भी स्थित हैं. आकाश का बंटवारा भी तो धरती के नक़्शे के हिसाब से ही हुआ होगा. इन स्वर्गों के बीच यातायात न के बराबर है, पर अपने नारदजी को जानते ही हैं आप. अपने न्यूज़ चैनल वालों के आदि-पुरुष हैं, कभी भी, कहीं भी प्रकट हो लेते हैं. बहु-भाषी, खोजी वृत्ति के और विट-संपन्न चपल वाणी वाले.
रोमियो ‘नारायण’ की ध्वनि सुनते ही कोई धमाकेदार खबर सुनने की उत्सुकता से मुंह बा कर उकडूं हुए तो नारदजी ने बिना भूमिका ही तीली सुलगा ली. बोले- हे युगों-युगों से प्रेमी दिलों में सुलगती ज्वाला के मानवीय रूप, ज्ञात हो कि इधर छेड़-छाड़ रोकने के बहाने इंडिया में रोमियो स्क्वाड बने हैं. पर वो प्यार करने वालों की जयकार करने के बदले उन पर जुल्म ढा रहे हैं. तमाम वर्तमान या संभावित प्रेमी कहीं पर पिट रहें हैं, कहीं मुर्गा बने बैठे हैं, उठक बैठक कर रहे हैं या सीधे प्यार के सीन से सरपट भागते दिख रहे हैं. ऐसा ही चलता रहा तो रोमियो प्यार के लिए मर-मिटने का नहीं मार-मिटाने का नाम समझा जाएगा.
रोमियो फिक्रमंद होकर बोले- पर इंडिया के तो अपने ही रोमियो ढेरों हैं. स्वर्गवासी मजनूँ या रांझा तो मेरे ही लेवल के हैं. फिर मुझ ही पे कृपा क्यों... और अपनी जूलियट क्या सोचेगी!
नारद उवाच- ये मामला तो रोमियो जी आप तीनों स्वर्गों के प्रोटोकाल के हिसाब से सुलटा लीजिये. अपने इंडिया में ऐसे या कैसे भी निर्णय लोगों की भावनाओं को आहत होने से बचाते हुए लिये जाते हैं. फिर पश्चिमी कल्चर से तो बड़ा प्रेम है भारतीयों को. वैलेंटाइन डे मानते हैं तो प्यार करने वालों को किसका नाम दें.
रोमियो रुआंसे भये- मगर प्यार करने वालों से मेरा नाम जोड़ते, उन्हें पीटने वालों के जत्थे से क्यों जोड़ा?
नारदजी अपने सलाहकारावतार में आए- देखिये जी, भारत में रोमियो उस शख्स को कहते हैं जो कन्या को देखते ही प्रेम करने को आतुर हो जाए. वो जूलियट या प्रियंका में फर्क नहीं करता. आगे कन्या अगर मान जाय तो उत्तम अन्यथा ये रोमियो फब्तियां सुनाने, दुपट्टा खींचने, तेज़ाब-स्नान करवाने, थप्पड़ या गोली मारने का अधिकार रखता है. वह प्रेम करना स्थगित कर सीधे कन्या को वह काम करने के इरादे से उठवा सकते हैं जो वे अन्यथा विवाह के बाद संपन्न करते. यानी रोमियो मतलब विशुद्ध शोहदा और रोमियो स्क्वाड है रोमियो-मर्दन जत्था.
पर प्यार सच्चा भी तो हो सकता है. उनकी जूलिएटे भी राजी होती होगी. क्या सबको एक ही भाव पीट रहे हैं ये सौदाई?- रोमियो शेक्सपीयराना भाव-मुद्रा में बोले.
नहीं! अभी तो नहीं, मगर संभावना पूरी है. रोमियो तो सीनियर सिटिज़नों और ब्रम्हचारी कहाने वालों में भी में पाए जाते हैं. सच्चे झूठे प्यार की जांच करने वाली मशीन भी अभी नहीं बनी. इसलिए रोमियो स्क्वाड भेदभाव नहीं करता, जहाँ लक्षण देखता है अपने काम में जुट जाता है. लो देखो, मैं दिव्य दृष्टि से लाइव दिखाता हूँ.
सब देखने समझने के बाद फिलहाल रोमियो सर पकडे ईश्वर के नाम ज्ञापन ड्राफ्ट करने में लगे हैं. उधर जूलिएट कनखियों देखती और टेढ़े कानों से आहट पकडती जूस के गिलास के पीछे मंद-मंद मुस्का रही हैं.

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