यात्रा वृत्तांत लिखने का शौक़ उतना ही पुराना है, जितना यात्रायें करने का। कादम्बिनी के राजीव भैया ने ,मुझे लक्षद्वीप की यात्रा पर एक लिख लाने को कहा। तस्वीरें भी मंगवाईं। फिर इसी माह पत्रिका के पर्यटन विशेषांक में प्यार से छापा। यहाँ ब्लॉग पर उन्हीं शब्दों के साथ कुछ और तस्वीरें जोड़ कर ये यात्रा वृत्तांत प्रस्तुत है।
कोरल द्वीपों का स्वर्ग: लक्षद्वीप
एक बड़े समुद्री जहाज़
का डेक, चारों ओर फैला अथाह, पर शांत समुद्र जिसकी लहरों पर क्षितिज में बादलों की
ओट से झांकते सूर्य की किरणों की थिरकन, कुछ ही दूर पर सतह पर तैरता –सा हरियाली का
एक लंबा टुकड़ा, जिसके सामने नीले-हरे पानी के विस्तार पर जहाज़ की ओर बढती दो
नौकाएं. एक जादुई सम्मोहन जैसी स्थिति. हम देश की मुख्य भूमि से 400 किमी. दूर
लक्षद्वीप द्वीप-समूह की राजधानी कवरत्ती आ पहुंचे थे.
लक्षद्वीप को धरती
के स्वर्गों में से एक माना जा सकता है. हमने ये यात्रा अपने देश के अद्भुत
भौगोलिक विविधता का एक अनोखा व् उत्तेजक पहलू छूने के लिए चुनी थी. कोरल (मूंगा)
द्वीपों का अपना विशिष्ट प्राकृतिक सौन्दर्य तो है ही, जैविक विविधता को जलीय-जीवन
में देख पाने का अवसर इन्हें सैलानियों और प्रकृति-प्रेमियों के लिए ख़ास बनाती
हैं. लक्षद्वीप अकेला ऐसा कोरल द्वीप समूह है जहां मूँगों द्वारा निर्मित ज़मीन के
गिर्द उथले स्वच्छ पानी के लैगूनों में समुद्री जीवों का विशाल जीवंत संसार बेहद
आसान पहुँच में है. उधर द्वीपों पर नारियल और पाम के पेड़ों का झुरमुट और मक्खन का
रंग लिए मुलायम रेत का विस्तार है. नैसर्गिक सौन्दर्य में ये 36 द्वीप आपस में होड़
करते से लगते हैं, हालांकि आबादी 12 द्वीपों में ही है. इस यात्रा में तीन ही द्वीप
हमारी पहुँच में थे. इन द्वीपों- कवरत्ती, कल्पेनी और मिनिकॉय में स्थानीय आबादी
पानी के लिए वर्षा-जल तथा मछली, नारियल और कुछ फल-उत्पादों के सिवा हर वस्तु के
लिए कोच्ची से आये जहाज़ों पर निर्भर हैं. पर्यटन एक मुख्य व्यवसाय तो है पर मुख्य
भूमि से दूरी, पर्यटन-उद्योग को बढ़ावा देने के नाम पर अंधाधुंध बाजारीकरण न होने और
प्रशासनिक प्रतिबन्धों के कारण पर्यटकों की संख्या बेहद सीमित है. इस कारण लक्षद्वीप
अपनी अछूती और अकलुषित धरती और समुद्र के साथ आज भी ये द्वीप प्राकृतिक नैसर्गिक
सुषमा में विशिष्ट और अद्वितीय हैं.
‘स्पोर्ट’ नामक
संस्था से संचालित हमारी ये ‘समुद्रम पैकेज’ यात्रा कोच्ची से ‘एम्.व्ही.कवरत्ती’
नामक जहाज़ पर पिछले दिन शुरू हुई थी, जिसकी वातानुकूलित केबिनों में हम कम ही
टिके, खुली डेक पर वक़्त ज़्यादा बिताया. समुद्री यात्रा के पहले अनुभव की उत्तेजना
धीरे-धीरे एक शांत अपरिचित अनुभूति में बदलती गई जो शहरों के तनाव-भरी दिनचर्या से
कुछ पल चुरा कर प्रकृति की गोद में पहुँच जाने पर होती है. जहाज़ का अनुशासन हमें
बाँध कर तो रखता था पर 164 पर्यटकों के लिए इस यात्रा का आनंद उठाने में कहीं बाधक
नहीं हुआ. ऊपरी तीन मंजिलों और दो खुले डेकों पर हम सब आज़ाद पंछी की तरह उड़ते
फिरे.
नावों ने हमें आधे
घंटे में तट पर छोड़ दिया. ताज़ा नारियल-पानी पीकर ‘स्पोर्ट’ के खूबसूरत रिसोर्ट में
रंगीन छतरियों तले आरामकुर्सियों पर लेटे तो तीखी धूप का सामना हुआ. सामने हलकी
लहरों पर डोलता स्वच्छ जल-संसार पुकार रहा था.
उसके बाद तो बस हम थे और पानी. तरह-तरह
के जलीय खेल जैसे तैराकी, लाइफ जैकटों के सहारे लहरों पर यूं ही लेटे रहना, स्पीड-बोट
के पीछे बोर्ड या बनाना-बोट पर लहरों की सवारी यानी समुद्र-तट के तमाम सुख और
मस्तियाँ. फिर बारी आई ऐसे ‘वाटर-स्पोर्ट्स’ की जो हमें यहाँ के विशेष आकर्षण कोरल
और समुद्री-जीवन से रू-ब-रू कराते. ग्लास बोट से इनकी झलक देख कर उत्साह और बढ़ गया
और हम ‘स्नोर्केलिंग’ के मास्क पहन कर औंधे मुंह सतह पर उतराते हुए अचंभित कर देने
वाले नज़ारे देखने लगे. ऊपर से शीशे जैसा चमकता शांत समुद्र अपने सीने में अनंत
हलचलें छुपाये हुए था. सतह से चंद फुट ही नीचे जैसे हर शै ज़िंदा थी. कोरल चट्टानों
का एक शहर-सा था जिसके इर्द-गिर्द हर संभव रंग, आकार की छोटी-बड़ी मछलियाँ, समुद्री
वनस्पति और अन्य जीव अपनी दिनचर्या में लगे थे. प्रकृति के ब्रश से शरीर पर रंगों
और आकृतियों के ख़ूबसूरत पैटर्न बनवा कर मछलियाँ इतराती घूम रहीं थीं. अपनी आँखों
से ये संसार देखना सचमुच जीवन के सबसे रोमांचक पलों में से एक था. बाहर आये तो तट
पर से आज का शिकार लेकर लौटे स्थानीय मछुवारों की नावों से उतरी शार्क, टूना और कुछ बहुत बड़ी मछलियाँ देखीं, जिनमें कुछ तो आकार में हमसे भी बड़ी थीं.
लौट कर सुस्ताते हुए
हुए इस नैसर्गिक सुषमा का आनंद ले रहे थे कि घुमड़ते हुए कुछ काले बादल एकदम बरस
पड़े. द्वीप पर हो रही इस झमाझम में दिश्यों पर एक जादुई आवरण छा गया. अब जो आकाश
खुला तो वातावरण की स्वच्छता और बढ़ गई. हलकी बूंदा-बांदी में कवरत्ती की साफ़-सुथरी
सडकों से होकर हमने इस नन्हें से द्वीप का एक चक्कर-सा लगाया.
साफ हवा, चमकता पानी,
हरियाली और किरणों के इन्द्रधनुष अपनी आँखों में समेटे हम जहाज पर लौटे तो
सूर्यास्त हो रहा था. बादलों से छन कर रोशनी का जादू चारों ओर बिखर रहा था. इस रात
जहाज़ ने चंद घंटों में ही अगले द्वीप पर पहुँच कर लंगर डाल दिया और पूरी रात लहरों
पर झूलता रहा. थके हारे होने के बावजूद सारे पर्यटक जहाज़ के मनोरंजन कक्ष में जुटे
और गीत संगीत की महफ़िल जमाई. देश के अलग-अलग क्षेत्रों, तरह-तरह के पेशों और
आयु-वर्ग से आये ये पर्यटक एक साथ सुर मिलाते एक नन्हें से भारत का समां बाँध गए.
नींद खुली तो
कल्पेनी के तट से आई नौकाएं हमें पुकार रही थीं. सामने नीले पानी पर एक परत
हरियाली की बिछी हो जैसे, जिसे भिगो कर समुद्र हरा-आसमानी हो रहा था.
तैराकी न जानने वाले भी आसानी से यहाँ थोड़े गहरे
समुद्र की सतह पर पसरी जादुई दुनिया देख सकते हैं. मास्क-सिलिंडर से लदे-फदे हम
नाव से कुछ दूर समुद्र में ले जाकर पानी में उतारे गए.
मास्क से पानी में भी सांस
लेना आसान होते हुए भी जैसे हमने सांस रोककर रंग-बिरंगी मछलियों और कोरल्स की
धड़कती दुनिया को देखा. रुकी हुई नाव पर लौट कर जब साँसें सामान्य हुई तो आसपास
देखा जो एक सपनों के संसार जैसा था.आगे एक विशाल लैगून था जिसके बीच बालू और कोरल से रची एक बड़ी सी पेंटिंग रखी थी. द्वीप से बालू की एक लकीर-सी खिंची थी जिसपर नारियल और ताड़ के पेड़ झूम रहे थे. सभी दिशाओं से लहरें इस भीत को चूम-चूम कर उसपर लकीरों के कसीदे काढ रही थीं.
पारदर्शी पानी में मछलियाँ बेख़ौफ़ तैर रही थीं. किनारों पर सीप, शंख, केंकड़े और दूसरे जीव क्षमता-भर बालू की सतह पर कुछ प्रतिकृतियाँ रच रहे थे. अपने रिसोर्ट पर लौट कर भी तटों के आस-पास ये कोरल दुनिया देखते रहे. फिर स्वादिष्ट टूना मछलियों और ताज़ा सब्जियों के साथ दिन का खाना खाया, जिसके साथ स्थानीय कलाकारों दवारा ढोलक व् डफ की ताल पर रोचक नृत्य की जुगलबंदी चलती रही.
द्वीप का आकाश तब बादलों
और रोशनी के तिलिस्म में डूब रहा था. पानी पर इसका प्रतिबिम्ब पल-पल रंग बदलने लगा
था. द्वीप के इस छोर का सौन्दर्य अप्रतिम था. जहाज़ तक लौटने के लिए हम नौकाओं में
चढ़े तो सूर्य डूब रहा था. कल्पेनी एक काल्पनिक दुनिया का आभास दे रहा था. द्वीप के
आकाश पर बादलों ने एक ऐसा समां बांधा मानों नारियल के पेड़ों पर से लपटें उठा रही
हों. प्रकृति कि इस अविस्मरणीय चित्रकारी को हम जहाज पर पहुंचकर भी डेक से तब तक
देखते रहे जबतक वह नज़रों से ओझल नहीं हो गया.
जहाज़ फिर एक लम्बी
यात्रा पर चला, लक्ष्य था द्वीप समूह का सबसे दूर स्थित मिनिकॉय द्वीप. अगली सुबह
सूरज के क्षितिज पर प्रकट होने पर जहाज़ ने लंगर डाला तब हम सोना-सोना हो रही लहरों
को देख रहे थे. मिनिकॉय जहाज़ से समुद्र पर लेटे एक विशाल हरे सर्प –सा दिख रहा था.
हुक जैसी आकृति के कारण इसका लैगून खासा बड़ा है. कोरल-रीफ़ में पाई जाने वाली
पैरेट-फिश परिवार की मछलियाँ अपने नुकीले दाँतों से कोरल-चट्टानों को खाकर उन्हें
बालू में तब्दील करती हैं. ऐसे ही टनों बालू का फैलाव यहाँ एक विशाल लैगून की रचना
करता है जो मीलों पसरे हुए साफ़ पानी के स्वीमिंग पूल सा दीखता है. सबसे पहले हम एक
द्वीप स्तम्भ (लाइट हाउस) पर चढ़े और द्वीप को सम्पूर्णता में देखा. पूरा द्वीप
हरे-भरे पेड़ों से अटा है और हरे नीले पानी से ही घिरा है. लैगून की सीमा के पार
हमारा जहाज़ समुद्र में खड़ा नज़र आया.
‘स्पोर्ट’ के
रिसोर्ट के सामने दूर तक घुटने भर पानी था सो हरेक शख्स पानी में उतर गया और बचपन
के दिनों-सा खेलने कूदने लगा. हम जब जी चाहा नाव पर पतवार चलाते घूमने लगे, छप-छप
करते पानी में दौड़े, या सतह पर लेट कर बदन के ऊपरी हिस्से को गर्माता और निचले में
पानी की ठंढक महसूसते रहे. कुछ ही दूर पर स्कूबा-डाइविंग की तैरती जेट्टी मौजूद
थी.
मास्क लेकर हम फिर सतह पर उतराने लगे. अब तक इस जल-संसार से आत्मीयता-सी हो
चली थी. छोडी बड़ी मछलियों के बीच तैरते हुए अचंभित होकर हाथ-पैर चलाकर उन्हें
डराते नहीं थे बल्कि उनके स्वभाव से तालमेल बैठाने की कोशिश करते. वे भी जैसे
मुस्करा कर स्वागत करती सामने आ जातीं. मिनिकॉय का कोरल संसार इस मायने में अनोखा
है कि नीचे नुकीले कोरलों के बीच काफी मात्रा में मुलायम रेत भी है जिसपर खड़े होकर
साँस लेना आसान हो जाता है. समुद्र को इतना दोस्ताना हमने कम ही जगह पाया. मिनिकॉय की भौगोलिक दूरी ने उसे भाषा-संस्कृति के लिहाज़ से कुछ अलग और विशिष्ट रखा हुआ है. परम्परा में यहाँ विवाह के बाद दूल्हों को वधु के घर रहना होता है. हमें गाँव में एक पारंपरिक विवाह-स्थल पर चाय पकोड़ों के साथ कॉफ़ी मिली जहां एक बड़ी मस्जिद और गाँव के सामान्य कारोबार भी चलता देखा. तट पर रंग-बिरंगी झंडियों के बंदनवार के नीचे कई पतवारों वाली सजी धजी एक लम्बी नाव मिली जो यहाँ आयोजित होने वाले वार्षिक नौका-स्पर्धा की विजेता थी.
मिनिकॉय में केरल जैसी ही परम्पराएं हैं. नौका दौड़ के एक क्लब में ट्राफियां और पुरस्कारों का ढेर देखना भी मज़ेदार अनुभव था. द्वीप के दूसरे छोर पर चौडाई इतनी भर रह गई थी दोनों ओर का समुद्र- एक ओर शांत और उथला और एक ओर तेज़ लहरों के थपेड़े मारता- नज़रें घुमा कर देखा जा सकता था. यहाँ नारियल के अलावा भी कई किस्म की वनस्पति नज़र आई.
न चाहते हुए भी
डूबते सूरज के साथ हमें अपने इस आखिरी पड़ाव से जहाज़ पर लौटना पडा, बेशक एक और
मुग्ध कर देने वाले आकाशीय इंद्र धनुष की छवि कैमरों और स्मृति में समेटे हुए. उस
रात आधी रात तक कोई सोया नहीं. लक्षद्वीप के अनुभवों और दृश्यों के सम्मोहन में
डूबे, स्पोर्ट के आयोजकों को धन्यवाद देते, डेक पर यूं ही बैठे, गाते-बजाते,
सेल्फियाँ लेते रहे. अँधेरे में अपने सबसे लम्बे सफ़र पर तेज़ रफ़्तार से लौटते
शानदार एम्. व्ही. कवरत्ती में लक्षद्वीप की यात्रा का आखिरी दौर सहयात्रियों के
साथ बिताया जहां अपने देश पर नाज़ करते हुए गीत गाये, अनुभव बांटे और अपनी भाषा-संस्कृति
की विविधता में भी एकरूपता का जश्न मनाया.
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