साहित्यम होली विशेषांक २०१६ से

ये सीटी-वादक – कमलेश पाण्डेय

आप ही बताईये- इन चंदूलाल का क्या करें? 

ये हर वखत चिंता में सुलगते रहते हैं. इनकी चिंता है कि कोई कुछ कर कर रहा है तो क्यों रहा है. कहीं भी कुछ हो क्यों रहा है. ये विकल्प-शास्त्र में पीएचडी हैं. इनके जाने कोई आदमी, संस्था, पार्टी या खुद सरकार ही कुछ करने की ठान ले तो तुरंत-फुरंत घोषणा कर देते हैं कि ये तो गलत हो रहा है...इसे तो होने का कोई अधिकार ही नहीं. इसके बाद अपने विकल्पों की पिटारी खोलकर बताने लगते हैं कि इस काम के एवज़ तो ये, वो या फिर इत्ते सारे काम इकट्ठे भी हो सकते हैं. 

उद्यमी लोगों की मेहनत को पलीता लगाते चिर-चिन्तक चंदूलाल हर संभव जगह पर घुमते-फिरते या धरने पर बैठे हैं. छोटू-उस्ताद की मंडली ने मोहल्ले में अष्टयाम का आयोजन किया. चेलों ने बस बाज़ार की दुकानों का एक फेरा लगाया. चंद आँखें व बंधी मुठ्ठियाँ दिखा के और “धरम का काम है” की रसीद देके बातों-बातों में पचासेक हज़ार इकठ्ठे हो गए. काम शुरू हो इससे पहले ही चंदूलाल प्रकट हुए और सीटी बजाते घूमने लगे कि ये गलत हो रहा है. मोहल्ले में सबको बताने लगे कि अष्टयाम के बदले इतने पैसे में जाने क्या-क्या नेक काम हो सकते हैं. वो तो छोटू उस्ताद का मामला था कि उन्हें समझा दिया कि उनकी मंडली नेकी कर दरिया में डालने की बजाय नेकी की बात करने वालों को ही दरिया में डालना पसंद करती है. अष्टयाम आखिर पूरे मोहल्ले की भक्तिमय हाजिरी के साथ संपन्न हुआ. छोटू उस्ताद ही नहीं, मोहल्ले वालों को भी पता है कि क्या होना चाहिए. 

उद्यमी लोगों को इन सीटी-वादकों से कितनी पीड़ा होती है ये आप तभी जान पायेंगे अगर आपने भी मेहनत कर के सामाजिक अनुष्ठानों का कोई सफल कारोबार खडा किया हो. आप खुद सोचें (ये ज़हमत अकेले मैं ही क्यों उठाऊँ?), आज के ज़माने में कुछ बड़ा करने में आखिर क्या लगता है. पैसा ही न. अगर आप सोचते हैं कि आध्यात्म या कल्चर लगता है तो उसके पीछे भी पैसा ही तो छुपा है. शुरू में बड़ी मेहनत लगती है, पर बाद में ज़रूर भक्त लोग जमा हो जाते हैं और तमाम तरीकों से चंदा-वंदा जमा कर जैसा आप चाहते हैं, आयोजन कर डालते हैं. बस पैसा और आदमी जुट जाय तो प्रशासन, व्यवस्था, क़ानून वगैरह सब जुट लिए समझो. फिर जितना ऊंचा, बड़ा, लंबा, चौड़ा, उलटा या सीधा आईडिया पकाना है, पका लें. आंच में जलने को सरे संसाधन लाइन लगाकर खड़े रहते हैं. कितने तो व्यापक उद्देश्य होते हैं आपके इन आयोजनों के – जनकल्याण तो लगे हाथों होता ही है, समाज के हर तबके में छुपे अपने जैसे त्यागियों के साथ रमण-चमन, मिलना-जुलना, आगे और आयोजनों के मंच तैयार करना आदि इत्यादि. क्या ये सब इस वजह से छोड़ दें कि चंदूलालों को अच्छा नहीं लगता और वे इसकी जगह ये और वो करना चाहते हैं. 

सालों लगते हैं कुछ करने लायक बनने में और जब आप करने पर आ गये तो आ गए ये भी अपनी पिपही लेकर- कभी पर्यावरण का राग बजायें, तो ज्यादातर गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी की. आप सोच रहे हैं कुछ ग्लोबल स्तर की, ये बात करें गलियन की. आपके दिमाग में करोड़ों की डिजायनर मंच-सज्जा और चकाचौंध कर देने वाले नज़ारे हैं और ये बात कर रहे टाट-पट्टी स्कूलों में बेंच लगवाने की. हमारी चिंता लाखों लोगों को एक साथ बिठाकर पञ्च-सितारा लंच कराने की है, चंदूलाल फ़िक्रमंद हैं मिड-डे मील के कीड़े लगे चावल दाल की जांच के लिए. हम गिनिस बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में घुसना चाहें, आप रूटीन में सदियों से चल रही घटनाओं का ज़िक्र करें जो अब क्या बदलेंगे? भई, तुलना में कुछ तो बराबरी आने दो. 

उधर सरकार और चंदूलालों में भी ठनी रही है. सरकार तो बनवाई ही जाती है काम करवाने के लिए. सो काम तो वो करती है, कौन से काम? इसी पर मतभेद बना रहता है. सरकार को दिखने वाले काम मुफीद आते हैं. जो बड़े होते हैं वही जियादा दिखते हैं और चुनाव में बखानने के काम आते हैं. इधर चंदूलाल माइक्रो-स्तर पर सोचते हैं, विकल्प-शास्त्र का पिटारा खोल कर हर वृहत प्रोजेक्ट को कई सूक्ष्म कामों में तब्दील करने की जिद करते हैं. कभी-कभी सरकार भी इनके मज़े लेती है और बड़े-बड़े प्रोजेक्टों में छोटे-छोटे अड़ंगे लगने देती है. इससे प्रोजेक्ट चर्चा में रहता है और उसका बज़ट और उसी अनुपात में कमीशन बढ़ता रहता है. एक ही प्रोजेक्ट कई चुनावों तक काम आ जाता है. इसलिए सरकारें अब चंदूलाल की सुरक्षा के लिए क़ानून बना रही है. सुरक्षा को ये ख़तरा ज़ाहिर वजहों से है. 

ताजमहल बनते समय अगर चंदूलाल की सीटी सुन ली गई होती तो ताजमहल गायब होता और उसकी जगह हिन्दोस्तां नामक जगह में एक लाख मदरसे-स्कूल होते जिसमें पढ़कर तमाम लोग आलिम-फ़ाजिल हो जाते. आगे ये लोग कुछ और सीटियों की आवाजों की वज्ह से कुछ अजन्मे किलों-मकबरों की नींव पर बने कल-कारखानों में काम करते और इसी तरीके से बन पाए अस्पतालों की वजह से ज़िंदा बचे बाक़ी लोग दुनिया के अन्य हरित क्षेत्रों में चरने को चल देते. कुल मिला कर हिन्दोस्तान की जगह काम में डूबा जापान-सा कुछ बनता. उन्हें लौट कर देश में देखने को बुलाने वाला ताजमहल भी न होता.  

दरअसल देश का ये आलम कि कहीं साधनों-संसाधनों की बाढ़ आई रहती है तो कहीं बेकसी और मोहताजी का सूखा पड़ा होता है, देश की एक छोटी मगर सक्षम व खुशहाल आबादी के लिए रंग-बिरंगे भारत की विविधतापूर्ण इतिहास-भूगोल, समाज-संस्कृति का ही एक रूप है. चंदूलाल मगर इसे अश्लीलता के तौर पर देखते हैं. अब अश्लीलता पर रोक आदि पर दुनिया भर में क्या रवैया है, हम सब जानते ही हैं. 

होने के खिलाफ झंडा बुलंद रखें वाले चंदूलाल विरोधाभासी भी हैं. होने से भी जियादा वे कई ‘न होने’ के विरोध में भी ऐसे ही क्रांतिकारी तेवर रखते हैं. शायद वे दो-चार बड़ा-बड़ा होने को कई छोटे-छोटे होने में तब्दील करने में यकीन करते हैं. ये बहस तभी ख़त्म होगी जब ताजमहल से लेकर स्कूल-मदरसे-अस्पताल तक सब अपनी सही जगह खड़े मिलें. चंदूलाल लगे रहेंगे. 

और ज़रा आप भी सावधान रहिये, चंदूलाल की हिट लिस्ट में होली भी है क्योंकि ये तो शुरू ही ‘हो’ से होती है. होली पर उनके हिसाब से न होने लायक इतना कुछ होता  कि अगर वो खुद भंग की तरंग में न हों तो फिर आपकी होली तो हो ली. ...इत्ता पानी बर्बाद होता है, ज़हरीले रंगों से सेहत बिगड़ती है, नकली मिठाईयों से बचो, शोर-शराबा-मार-पीट मत करो, नशा कर सामाजिक माहौल मत बिगाड़ो..आदि इत्यादि . हिदायतों की इस लम्बी सूची को ध्यान में रखते हुए ही होली खेलें, वरना चंदूलाल आ जाएगा.

कब है होली? कब?

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