जे एन यू, उसकी विचारधारा और बदलते सुरों से अपनी पुरानी पहचान को जोड़ने की कोशिश में कुछ लेख लिखे हैं ..

8 मार्च 2016
जेएनयू के अपने युवा दोस्तों के लिए-
दोस्तों-
मान गए भाई, खूब बोले, जबरदस्त बोले. जुमले का जवाब चुभते हुये जुमले, नारे का जवाब और जब्बर नारा और बॉडी लैंग्वेज के तो क्या कहने, नाट्य-शास्त्र के टर्म-पेपर में एकदम ए-प्लस लायक. देश के मूल-भूत सवालों को उठाकर ताज़ा बहस के मूल सवाल को पीछे धकेल दिया तुमने. देश से आज़ादी या देश में आज़ादी हुई कि न हुई- वो भूली दास्ताँ यानि बोले तो एक सर्वहारा क्रान्ति जरुर हो गई.
कई दशकों से इस सर्वहारा क्रान्ति का वैचारिक पोषण देश रूपी जंगल में जे एन यू नामक द्वीप की परिधि में ही होता रहा है. कैपस में घुसते ही क्रान्ति के गर्म झोंकों से स्वागत होता रहा है. चाहे वो धरती पर कहीं हो रहा हो-‘हर जोर-ज़ुल्म के टक्कर में’ यहाँ कुछ लोग जुट जाते हैं संघर्ष के नारों के साथ भाव-भीने, ओज और तंज तथा बुद्धिमत्ता से भरे भाषण (जैसा तुम्हारा था) होने लगते हैं. गंगा-ढाबा क्रान्ति के परिनिर्वाण का घाट है. उबलती चाय, सुलगती बीडियों और दहकते जुमलों की आहुति के साथ पूरी दुनिया के बुर्जुआ-जनों की चितायें जली हैं इस मणिकर्णिका पर. दुनिया भर की ग़रीबी और शोषण के विरोध में इस कैपस में कैंडल-मार्चों में मोम की बूँदें आंसुओं की तरह ढुलकती रही हैं और साम्राज्यवाद को कैपस की सड़कों के कंकडों के साथ ठोकर में उड़ाया जाता रहा है. कम से कम बाहर के जंगल में जे एन यू के इंटेलेक्चुअल ट्राइब के बारे में ऐसी ही किंवदंतियाँ फैली हैं और अपनी आइडियोलॉजी के मास्क लगाए और अपनी परम्पराओं के लंगोट और आभूषण डाले दशकों से हम अपना बुद्धिजीवी नृत्य कर रहे हैं.
पर ऐ हमारे युवा दार्शनिक साथी, तुम्हारा सधा हुआ सुर अब कैपस तक सीमित नहीं रह जाएगा. टी आर पी की भुखमरी से ग्रस्त टीवी चैनल उन्हें ले उड़ेंगे. तुम्हारा बेख़ौफ़ गर्जन-तर्जन स्टीरियो-टाइप विपक्षी प्रलापों के साथ तौल दिया जाएगा. तुम्हारी पृष्ठभूमि और अंदाज़े-बयान की त्वरा(sponteniety) तुम्हें कुछ चिन्हित-परिचित धूसर नेताओं के बराबर खड़ा कर देंगे. दो दशक पहले हमारे वक़्त में सोशल मिडिया नहीं था सो सारा खुला विमर्श जे एन यू द्वीप की चौहद्दी में ही बंद रह जाता था. हम खुद में ही थोड़ा-थोडा जे एन यू लेकर बाहरी दुनिया में जाते और देश की वैचारिक प्रगति को सही दिशाओं की और मोड़ने की अपनी अकिंचन कोशिशें करते थे. अब तुम्हारी आजादी की बात यों धूम-धाम से निकली है तो दूर तलक जायेगी. पक्षधर तुम्हारे पीछे लामबंद होकर खुद को एकमात्र सत्य का वाहक कहेंगे और विपक्षी भी तुम्हारे तर्कों को अंतिम झूठ. अब तक जे एन यू भरसक व्यक्तिगत मह्त्वाकान्क्षाओं का अखाड़ा नहीं बनने दिया गया था. कुछ ने पाला-पोसा होगा और भुनाया भी होगा, पर सीमित अर्थों और दायरों में ही. यहाँ आइडियोलॉजी आधारित चिन्तक, स्वतन्त्र चिन्तक, अचिन्तक(सिविल सर्विस वाले) और कुचिन्तक(बहसों में खुरपेंच फैलाने वाले) एक ही वक़्त में एक ही साथ मौजूद रहे हैं. इस मायने में सहिष्णुता की ये अंतिम मिसाल है. इससे पहले भी छात्र आन्दोलन में जेल भरे गए और अपने भाषणों से मन्त्र-मुग्ध कर देने वाले वक्ताओं कि लम्बी कतार रही है. ऎसी जगह पर हिंदी में सीधी-सादी ज़ुबान बोल कर पूरे छात्र समाज का प्रतिनिधि बन जाना तुम्हारे गहरे चिन्तन और शानदार वक्तृत्व क्षमता का प्रमाण है. पर इन घटनाओं के बाद सब कुछ बदल गया है और आगे क्या होना है- इस पर सोचो!
आगे मैं जो कहूंगा उसमें सीधा खतरा उस सामान्य ट्रेंड की वजह से है कि तुम्हारे या तुम्हारे जैसों के सवालों पर सवाल उठाते ही मैं बाईं ओर से फिसल कर सीधे दक्षिण के दलदल में गिरा मान लिया जाउंगा. पर अपने जे एन यू के लिए ये इलज़ाम भी मंज़ूर है.
तुमने आजादी की बात की, उसका सन्दर्भ बतलाया, अच्छा किया. पर इसमें नया क्या है? देश में व्यवस्था के खिलाफ उठाने वाली हर आवाज़ का जे एन यू का प्रगतिशील प्रबुद्ध-वर्ग समर्थन करता रहा है. यहाँ तो भारत से आज़ादी के अल्ट्रा-वामपंथी नारे भी अलग-अलग लफ्फाजियों में समर्थन पाते रहे. सवाल ये है कि इस समर्थन का हासिल क्या है? भारत में आजादी के सारे मुद्दे ग़रीबी, भुखमरी, शोषण से मुक्ति, बराबरी हमारे संविधान के भी मूल-भूत आधार हैं और तमाम राजनीतिक पार्टियों के सबसे लुभावने नारों के भी. अभी जिस दल की सरकार है उसने भी चुनाव उन्हीं नारों को लगाकर जीता जो छह दशकों से उसकी मुख्य विपक्षी पार्टियों और छिटपुट अन्य पार्टियों ने लगाया और राज किया. वामदल भी अपवाद नहीं. अब तुम किस नए ढंग की आज़ादी चाहते हो भाई. उस पाने का रोड-मैप क्या है? क्या अब भी वही मॉडल है जिसे पिछली सदी में ही नकार दिया गया? या कोई नई है तो खुलासा करो यार!
अपने छात्र जीवन में उसी कैपस में और ब्रम्हपुत्र हॉस्टल में नारे-झंडे हमने भी किये. दो दशक बाद ये बड़ा सा प्रश्न लटक रहा है कि गरीबी, भुखमरी की बात कहने का आधिकारिक प्रवक्ता हम केवल खुद को ही क्यों मानते रहे हैं. क्यों कोई ये नारा लगाए तो हमें कॉपीराइट हनन जैसा मामला लगने लगता है? क्यों हमें अपनी लफ्फाजियों को अपनी धूर्त-बयानी में शामिल कर दशकों तक राज करने वाली कुछ अन्य राजनीतिक पार्टियां अपनी लगती रही हैं. राजनीति के चौसर पर पहुँचते ही हम भी वही खेल नहीं खेलने लगते जो हमारी आइडियोलॉजी के दुशमन पूरी चतुराई से खेलते देश को हमारे नारों के लक्ष्य से दूर ले जा रहे हैं.
माफ़ करना भाई, किसी की आइडियोलॉजी को सिरे से रिजेक्ट करने के बाद बराबरी का हक तो यही कहता है कि उसे भी हमें अक्षरशः रद्द कर देने का हक है. असहिष्णुता की लड़ाई से इस आज़ादी के ड्रामे तक यही नहीं हो रहा कि सब एक दूसरे को सिरे से ही रद्द करने में लगे हैं.
लोकतंत्र की एक परंपरा है(बेशक मानने वालों के लिए). 3२ प्रतिशत द्वारा चुनी गई सरकार को प्रतिनिधि नहीं मानने में ये ख़तरा है कि हमें अपने हिस्से के पांच प्रतिशत समर्थन के साथ कुछ हमखयाल और बहुत से अवांछित पर समर्थित टुकड़ों में चुने गए विरोधी पक्ष के साथ जुगलबंदी करनी पड़ेगी. सत्ता का विरोध बिला शक़ स्वस्थ प्रवृत्ति है बशर्ते रचनात्मक और ठोस धरातल पर खड़ा हो. चंद स्थानीय, व्यक्तिपरक, सिद्धांत-आधारित और कुछ ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों के आधार पर विरोध किये चले जाना विध्वंसक शक्तियों द्वारा खुद को इस्तेमाल होने देने का नेवता देना है.
हमें याद है, दो-तीन दशक पहले भी हम अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर कैपस की सब्सिडी या स्कॉलरशिप में कटौती जैसे तमाम मुद्दों पर व्यवस्था के खिलाफ फतवे ज़ारी करते थे. हमारा नज़रिया तब भी वैश्विक था और प्रेरणाएं पूरी दुनिया के संघर्ष की कहानियों से ली जाती थीं. पर पूरी बहस भारतीय संवैधानिक मर्यादा के भीतर ही रखने की कोशिश होती थी. हमारे कैम्पस में आजादी के नाम पर देश की लोकतांत्रिक सत्ता के उच्चतम स्तंभों को गालियाँ नहीं दी जाती थीं. प्रगतिशीलता के नाम पर भारतीय गणतंत्र को, जो हमारा ही प्रतिबिम्ब है, हत्यारा बता कर उसे ख़त्म करने के इरादे ज़ाहिर नहीं किये जाते थे. ताज़ा घटना में नारे छात्र संघ ने लगाए या नहीं सवाल ये नहीं है बल्कि हमारे कैम्पस में क्यों लगे-ये है? ऎसी जिदें इन विध्वंसकारी शक्तियों को मौक़ा देती हैं कि जे एन यू की विशिष्ट पहचान यानि स्वतन्त्र विमर्श, विचारधाराओं के बीच शास्त्रार्थ और परस्पर सम्मान की उस लोकतांत्रिक परम्परा को देश-विरोधियों का अखाड़ा कह कर जे एन यू को ही बंद करने की मांग कर दें. .
तुम अच्छा बोले थे. बोलते रहो..तुम्हारी पीढी को जाग्रत और उत्तेजित रहना ज़रूरी है..पर अब कुछ नया भी सोचो, अपनी घिस-पिट चुकी आइडियोलॉजी को नए विचारों और चिंतन से और मांजो, बदले ज़माने की चाल की सान पर धर के धारदार बनाओ. इस भ्रम से उबर जाओ कि प्रगतिशीलता सिर्फ तुम्हारे ढर्रे की सोच से उपजती है. ..और प्लीज़ , किसी भी हालत में देश को तोड़ने वाली ताक़तों से हाथ मत मिलाओ, चाहे वो सत्ता के इस ओर हों या उस ओर.

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16 मार्च 2016
कुछ दशक हुए हिंदी के एक महाकवि ने ये मुहावरा -“पार्टनर तुम्हारी पोलिटिक्स क्या है?” इस कमाल के देश में गढ़ा जहां ज़मीनी सच्चाई को बयान करता ये मुहावरा पहले से मौजूद था कि “इधर कुआँ तो उधर खाई”. सो चिंतनशील बन्दा अपने संशयों की पोटली दबाये सहमा-सा सोचता रहा कि वामपुर के नागनाथ को गले लगाए कि दखिन टोले के सांपनाथ को. उधर कुँए और खाई के बीच एक व्यावहारिक-सी ज़मीन पर वाम-दक्षिण दोनों की बैसाखियों के सहारे संतुलन बनाकर नाग-सांप की एक संकर प्रजाति मज़े में देश पर राज करती रही. वामपंथ कुछ हवाई सिद्धांतों को देश का सर्वरोगहारी और खुद को शोषित-पीड़ितों का एकमात्र आधिकारिक प्रवक्ता मानता रहा तो उधर दक्षिण पंथ भी अपने राष्ट्रवाद पर न खडी हर शै को खारिज करता रहा. बुद्धिजीवी जगत में हालांकि प्रगतिशीलता की धारणा पर वामपंथ जिद्दी दाग की तरह चिपका रहा. इससे च्युत होने वाले काफिर माने गए और जाति बाहर भी किये गए.  प्रगतिशीलता के घोषित नियम ज्ञान और साहित्य के खेत में बिजूका बना कर खड़े कर दिए गए. बुद्धिजीवी के लिए एक अदद पॉलिटिक्स रखने की अनिवार्यता के कारण  चिड़ी-चिडे (नए रंगरूट) खुले दिल से दाना चुगना तो दूर, इधर-उधर झाँकने से भी डरते रहे. भारत की भूमि इस प्रचंड प्रगति-वाद को कितना सोख पा रही है, ये बौद्धिक जगत ने साफ अनदेखा किया और सब और कीचड़ फैला. इसका नतीजा देख कर भी क्या वे चेते हैं?

बहरहाल, यहाँ पार्टनर जो है बेचारा हिंदी का साहित्यकार है. तिस पर व्यंग्यकार. उसे तो इधर भी विसंगति दिखे और उधर भी. उधर की खबर जब तक लेता रहे तब तक सब ठीक, इधर की लेने लगे तो उसकी पोलिटिक्स टटोली जाने लगे. अभी हाल में जे एन यू  प्रसंग में तर्क का पक्ष लेना मुश्किल हुआ..पुराने दोस्तों ने भगवा ठप्पा लगा दिया. मुंह खोलते ही चुप कराने लगे कि संघियों की भाषा बोलने लगे हो. मुझे यकीन है कि उधर भी तर्क के आधार पर कुछ कहते ही आपको वामपंथियों के साथ खड़ा बता दिया जाता होगा.

क्या पार्टनर बिना पॉलिटिक्स के पार्टनर नहीं रहेगा आपका? आपकी संवेदना, आपके पर्यवेक्षण, चिंतन और निष्कर्ष किसी राजनितिक सिद्धांत की छलनी से छने बगैर आपको पढने और सुनने वाले के मन में नहीं घुसते?

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