काल-संक्रमण को समझने की कोशिश में कुछ नए-पुराने विचार

काल-संक्रमण को समझने की कोशिश में कुछ नए-पुराने विचार - इतने लम्बे (व्यंग्य) आलेख के लिए क्षमा प्रार्थना सहित. अपने धैर्य की सीमा और श्रद्धानुसार पढ़ें!
भारतीय समाज एक संक्रमण काल से गुजर रहा है. सभी समाज किसी न किसी युग या काल से गुजरते रहने को अभिशप्त हैं. जैसे, कुछ दिनों से एक समाज अच्छा भला स्वर्ण-काल से गुजर रहां था कि एकदम से अंधकार युग आया गया. समाज भी चटपट सोने की धूल झाड-झूड कर एक अंधेरी गली में घुस गया और रास्ता टटोलता गुजरने लगा. तभी सामने से लालटेन हाथ में लिए एक महापुरुष रास्ता दिखाने लगा और समाज तुरंत अपना चोला बदल कर उस महापुरुष के पद चिन्हों पर कदम साधने लगा. वैसे इतिहासकारों और समाजविदों ने स्पष्ट किया है कि ये युग और काल एकदम से नहीं बदल जाते, बल्कि बीच में एक संक्रमण काल भी होता है जो जाते हुए काल और आते हुए काल के बीच पुल-सा खडा रहता है. ऐसे कालों में अक्सर किसी संक्रामक प्रवृत्ति के कीटाणु पूरे समाज पर हमला बोल देते हैं और उसी के प्रभाव में समाज के लोग छींकते-कांखते अगले युग में प्रवेश कर जाते हैं.
संक्रमण काल में एक प्रवृत्ति आ रही होती है तो दूसरी जाने की फिराक में होती है. बीच के खाली हिस्से में खासी दुन्द मची रहती है. कुछ लोग जाती हुई प्रवृत्तियॉ की याद में जार-जार रोते हैं तो नौजवान पीढ़ी नई वाली को बाहों में लिए हुडदंग मचाती घूमती है. बाक़ी बचे लोग इन दोनों को देख-देख सर धुनते हैं और अवसरानुकूल इधर-उधर होते रहते हैं. इनमें से कुछ रोने वालों के साथ और कुछ हुडदंगियों के साथ हो लेते हैं. धीरे-धीरे नई वाली प्रवृत्ति के पक्ष में हवा बंधने लगती है, जिसे देख रोने वाले आंसू पोंछ कर तटस्थता अख्तियार कर लेते हैं. संक्रमण-काल के समाप्त होने और एक नए युग के सूत्रपात की उम्मीद बंधने लगती है. पर तभी कुछ ताजातरीन प्रवृत्तियां दुनिया के दीगर हिस्सों से रिस कर समाज के वायुमंडल में घुलने लगती हैं. रोने-पीटने और हुडदंगें मचाने का नया सिलसिला शुरू हो जाता है. इस प्रकार संक्रमण का दौर जारी रहता है.
ऐसे ही एक संक्रमण का दौर है हमारे यहां. एक नहीं, बल्कि कई संक्रामक प्रवृत्तियां देश के वायुमंडल में तैर रही हैं. चालू युग से पहले कौन सा काल जारी था और वह कहाँ खत्म हुआ जहां से संक्रमण काल ने टेक ओवर किया, इसके बारे में विद्वानों में तरह- तरह के विचार और भ्रांतियां व्याप्त हैं. आजादी के बाद अपनी-अपनी श्रद्धा व् पसंद के अनुरूप हमारे समाज के अलग-अलग तबकों ने अपने-अपने निजी युगों का निर्माण किया. ये युग एक दूसरे पर चढ़े रहे या एक दूसरे को काटते रहे. समाजवाद का युग विकास के युग से गुत्थमगुत्था होता रहा तो इंदिरा-युग के बीच में ही एक नन्हा सा जेपी-युग कूद पड़ा. सब अपने वाले युग को स्वर्ण-युग और विरोधी के युग को अंधकार-युग बताते रहे. अक्सर समाज का कोई तबका किसी काल-खंड के द्वारा प्रस्तुत स्वयं के एक पूरा युग होने के दावे को बिलकुल खारिज कर उसे संक्रमण-काल घोषित कर देता.
बहरहाल मुझे लगता है और शायद आपको भी लगे कि आजादी के बाद जो संक्रमण का काल शुरू हुआ सो अभी जारी है और अगले कई सौ सालों तक और जारी रह सकता है. समाजवाद नामक काल अपने-आप में खासा संक्रमणकारी युग था जो उस काल की हर प्रवृत्ति पर हावी रहा. एक ओर समाजवाद में पूंजीवाद की मिलावट से ये युग संक्रमित रहा तो दूसरी ओर खांटी समाजवाद चाहने वाले साम्यवादियों की दखलंदाजी से भी ये काल एक युग बनने से रह गया. कुछ दशक तक ऐसे ही संक्रमण में रहने के बाद अचानक एक रोज समाजवाद का काल बीत गया और हमारे समाज ने सहमते कदमों से खुली अर्थव्यवस्था के युग से गुजरना शुरू किया. इस नए युग की आमद में भी एक पेंच है जो खासा ढीला है. समाज का बहुमत मानता ही नहीं कि किसी समाजवाद का युग हमारे देश में कभी आया भी था. वैसे बहुत से लोग ये भी नहीं मानते कि गुलामी की काँटों-भरी पगडंडी छोड़ कर हम कभी आजादी के हाई-वे से गुजरे हैं. जिस तरह समाजवाद के युग में समाज के एक छोटे से तबके के लिए सारी अर्थव्यवस्था एक दम खुली-खुली सी थी, खुली अर्थनीति के काल में अधिकाँश आबादी के लिए सबकुछ बंद-बंद सा ही है. सो कुल मिला कर एक सम्पूर्ण संक्रमण काल फिलहाल भी जारी है और ये समाज के हर सेक्टर पर लागू है.
हालिया दौर की सबसे चर्चित और सर्व-व्याप्त प्रवृत्ति क्या रही- घोटाला ही न. इन दिनों चाहे चर्चा के कुकर का ढक्कन बंद हो, अन्दर पक तो कुछ रहा ही है और सीटी कभी भी बज सकती है. एक विशेष संक्रमण की स्थिति है. अब तक कई इलाके ऐसे हैं जो इससे अछूते हैं. अगर वहाँ घोटाले हुए भी हैं तो प्रकाश में नहीं आये. इसी तरह घोटालों के आकार-प्रकार और स्वरूप पर मानदंड तय नहीं हुए. बीस करोड से लेकर बीस लाख करोड तक के घपले को घोटाला ही कहा जा रहा है. यों समाज का बहुमत मन ही मन घोटालेबाजों के प्रति श्रद्धा रखता है और सभी के मन में एक अदद घोटाला करने की आस पलती है, पर अभी तो बहुत से राजनेता तक घोटालों से बचे हुए हैं, या कम से कम पकडे नहीं गए हैं. ऎसी स्थिति में वर्त्तमान सदी के डेढ़ दशकों को घोटाला-युग कहना भ्रामक होगा. अधिक से अधिक यही कहा जा सकता है कि समाज में घोटालों का ये संक्रमण काल है.
ऊपर खुली अर्थनीति या बाजार-युग की चर्चा हुई, जिसमें खुली अर्थव्यवस्था की पोल खुल चुकी है. रहा बाज़ार तो वो भी कहाँ पूरी तरह खुला है. अभी महज शहरों में ही कुछ मॉल खुल पाए है जहां रेहडी पर की चीजें ही, बेशक खुली अर्थनीति वाले दामों पर मिल रही हैं. गाँव-शहर की परम्परागत मंडियां अभी साबूत तौर पर मौजूद हैं. यहाँ भी संक्रमन जैसा ही मामला है क्योंकि पूरा समाज अभी जिंसों की खरीद-बिक्री में नहीं मुब्तिला हुआ. संस्कार, आदर्श और ईमान जैसी चीजें अभी तक तो खुले-आम खुदरा मंडी में नहीं मिल रहीं. आगे राम जाने. सरकार के सब कुछ खोल देने के तमाम नेक इरादों के बावजूद कुछ नकारात्मक शक्तियों के दबाव में आधा ढंका आधा खुला जितनी ही स्थिति बन पाई है. विकासशीलता अपने-आप में एक संक्रमण है. इधर हम विकास कर कहीं पहुंचते हैं तब तक विकसित कहलाने के पैमाने और ऊंचे हो जाते हैं. हमारी रफ़्तार के मुकाबले ‘विकास’ शब्द कुछ ज्यादा ही तेज़ी से विकास कर रहा है. उधर देश में विकास की टांगें पीछे खींचने वाली एक चीज़-जनसँख्या भी तेजी से विकास करती रही है. इन सबमें आपसी संतुलन बनने तक संक्रमण बना रहेगा.
साहित्य समाज का आईना बताया जाता है. ये वो इलाका है जहां पलक झपकते ही किसी वाद की आंधी काल और युग को बदल देती है. इस इलाके में आधुनिकता का सूरज सबसे पहले सेंध मारता है. यहाँ युगों की सत्ता पर सबको यकीन रहता है. कई दशक पहले ही वहाँ नव-आधुनिकवाद आ चुका था, सो फिलहाल उत्तर-आधुनिक युग चल रहा होगा. मेरे विचार से तो भारतीय साहित्य में संक्रमण अपने चरम पर है, क्योंकि अभी तक यही तय नहीं हो पाया है कि देश-समाज की अभिव्यक्ति की भाषा कौन-सी है. अधिकाँश मानते हैं कि ये अंग्रेजी है. इस भाषा विशेष की भारतीय अभिव्यक्ति तो घनघोर संक्रमण में है जहाँ बहुत से आज़ाद ख्याल लोग अपनी रचनाओं में परा-आधुनिक चिंतन घोल कर उच्छ्वासें पैदा कर रहे हैं. पर वहाँ भी कहीं न कहीं भारतीय आत्मा बीच में घुस कर कृति की टांग पीछे खींच लेती है. हिंदी भी होड़ में लगी है. जहां तक भारतीय भाषाओं का सवाल है, एक ओर वाद -प्रतिवादों का आपसी मल्ल-युद्ध है तो दूसरी ओर किताबों के वाणिज्य में कबाडी की हैसियत होने की कुंठा. ले दे के वही संक्रमण काल है जिसे शायद उस वक़्त का इंतज़ार है जब लोई पूरी तरह उतर जायेगी और कोई कुछ नहीं कर पायेगा.
सामाजिक चेतना पर भी थोड़ी रोशनी फेंकें तो यहाँ भी संक्रमण साफ़ नज़र आता है. चिंतन, फैशन और भाषण अभी पूरा आकार नहीं ले पाए हैं. मानसिक संरचना अभी आदिम-काल में विचर रही है पर दावा स्वतन्त्र चिंतन का है. कहीं सगोत्र विवाह पर मौत के फतवे और सामूहिक बाल विवाह के आयोजन हैं तो शहरों में लिव-इन के जोड़े भी स्वीकारे जा रहे हैं. संस्कारों में बंधे मन की बेलौस उड़ान को संक्रमण की स्थिति ही कहा जाएगा. फैशन की दुनिया ने जींस को राष्ट्रीय पोशाक घोषित कर दिया है, पर ऊपरी परिधान में दुपट्टा अभी पूरी तरह नहीं फिसला. खुले-खुले परिधानों में सिमट-सिमट जाना आज के फैशन के संक्रमण काल का प्रमाण है. फिल्मों ने फैशन को एक अंजाम तक पंहुचाने में कोई कसर नहीं उठा रखी, पर देश का सेंसर बोर्ड पर्दे की आखिरी परत तक उधड जाने में आड़े आ जाता है. उधर भाषण और प्रवचन की कला में क्रान्ति के लक्षण दिखते तो हैं पर सुर अभी तक आदर्शों से डिगा नहीं है. नेतागण जितना अपने कर्मों में खुल चुके हैं उतना अभी भाषणों में नहीं खुले. प्रवचनकर्ता बाबा लोग जीवन और कारोबारी शैली में चाहे कितना प्रगति कर गए हों, बोलते हैं तो वही भक्ति-राग ही गाते हैं. संक्रमण-काल तो तभी बीतेगा जब भाषण व् प्रवचन पुराने घिसे-पिटे ढर्रे से हट कर कथनी-करनी का भेद छोड़ देंगे.
मुझे लगता है कालों और युगों के नामकरण में ही मौलिक गलती रही है. संक्रमण का अंदेशा इसी वजह से होता है. अगर अलग-अलग काल-खण्डों को उनमें व्याप्त सच्ची प्रवृत्तियों के आधार पर सीधे-सच्चे नाम, एक से अधिक भी हों तो, दे दिए जाएँ तो दमघोंटू संक्रमण की ये समस्या खत्म हो जायेगी. खैर ये काम हम युगों का नामकरण करने वाले विप्र विद्वानों के लिए छोड़ देते हैं. फिलहाल अपनी सीमित समझ से इतना ही जाहिर हो पाया है कि दुनिया एक सतत संक्रमण का काल-चक्र है, जहां हम जिस खास बिदु पर पहुँचने का लक्ष्य तय करते हैं वह उसी चक्र के वृत्त में होता है. आगे बढ़ना सापेक्षता की दृष्टि से भले ही महसूस होता रहे पर घूम कर वहीं लौट आना हमारी नियति है.

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