हिन्दी की सरकारी दशा पर लिखा था ये व्यंग्य .... देखें और महसूस करें.. अच्छी लगे तो टिप्पणी भी करें
प्रोत्साहित होती
हिन्दी
सशंकित रहना
व्यंग्यकार की फ़ितरत है। सीधी-सपाट स्थितियों में भी अपनी तिरछी दृष्टि गड़ा कर
उसमें वक्रता ढूंढता रहेगा। तंबू में भरी भीड़ के सामने जो चल रहा है, सामने से
जाकर सबके साथ उसके मज़े नहीं लेगा, बल्कि कोने में कहीं उंगली बराबर छेद कर मंच को
परखेगा या ‘बैक-स्टेज़’ को निहारेगा। दाल को काली देखकर उछल पड़ेगा, क्यों न वो जीरे
की छौंक-सा रुटीन कालापन ही हो। दुनिया एक पगडंडी पर भेड़ों की भीड़-सी चली जा रही
होगी, वह राह का पत्थर बना भेड़ों की चाल पर छींटाकशी करेगा।
चंदूलालजी को ही
ले लीजिये, नींद उड़ी हुई है, ऊटपटांग सपने आ रहे हैं- बात कुछ भी नहीं है। बस
दफ़्तर के हिन्दी-पख़वाड़े से गुजर कर सदमे में हैं। सभी से कहते फिर रहे हैं कि इस
देश में हिन्दी के नाम पर खाली नौटंकी हो रही है। मैंने बस इतना ही कहा कि इस
नौटंकी में एकाध भू्मिका लेकर कुछ कमा ही लेते तो दिल में इतनी ख़राश नहीं होती, तो
नाराज़ हो गये।
आप खुद सोचिये कि
अगर सरकार के विचार में हिन्दी कहीं पर रुकी पड़ी है तो उसे आगे बढ़ाने की ही बात
होगी न। इस देश में किसी को आगे बढ़ाने की बात सरकार ही तो करती है? हिन्दी के
मामले में तो सरकार केवल बात ही नहीं कर रही बल्कि अगर ध्यान दें तो सरकार ने इन
साठ सालों में हिन्दी को धक्के लगा-लगा कर इंच-इंच आगे बढ़ाने की कोशिश में
क्या-क्या नहीं किया। अब ये अंगद का पांव साबित हुई तो रावण की सभा क्या करे।
हिन्दी की प्रगति में निश्चय ही कुछ बाधक ‘तत्व’ मौज़ूद हैं जिन्हें हटाने की बात
भी सरकार बार-बार और लगातार करती है। इन तत्वों को पहचानने का प्रयास भी किया गया
है कि ये ठोस, द्रव या गैसीय किस अवस्था में हैं। मेरा खयाल है कि ये तत्व तीनों
ही रासायनिक अवस्थाओं में उपलब्ध हैं और हमारी पूरी व्यवस्था में घुलनशील हैं। इसके
अलावा मानसिक और परा-भौतिक अवस्थाओं में भी उनकी घुसपैठ है। प्रमाण के तौर पर
अंग्रेज़ी का भूत, जिसकी उपस्थिति के बारे में हिन्दी को आगे बढ़ाने वाले
हमेशा चर्चा करते रहते हैं। ये भूत बाधक तत्वों के अलावा आगे बढ़ाने वालों के सिर
पर भी सवार होता है। इन अद्भुत और ख़तरनाक तत्वों की खोज कर उसे नष्ट करने में अभी
एकाध सदी और लग जाये तो हैरानी नहीं होनी चाहिये।
फ़िलहाल जब तक
बाधक तत्वों की खोज ज़ारी है, हिन्दी को प्रोत्साहित करने में कोई कोर-क़सर नहीं उठा
रखी गई। ये नहीं कि शुरु-शुरु में ही थोड़ा-बहुत प्रोत्साहित कर के छोड़ दिया गया कि
अब अपने कदमों पर खड़े होकर चलो और आगे बढ़ो। आज भी हर साल सरकार पूरा एक पख़वाड़ा
हिन्दी को पुचकार-पुचकार के प्रोत्साहित करती रहती है। प्रोत्साहन की आर्थिक
योजनाओं में तो सरकार खुले हाथों पैसा लुटाती है। ये पैसा उन लोगों को ही मिलता है
जो हिन्दी के प्रति पिछले दस-बीस सालों से उत्साहित चल रहे हों यानी हर साल पख़वाड़े
भर आर्थिक-प्रोत्साहन वाली योजनाओं में पुरस्कार बटोर ले जाते हों और बाकी साढ़े
ग्यारह महीने हिन्दी को धक्का मार-मार कर आगे बढ़ाते हों। अब ये हिन्दी की समस्या
है कि वह फिर भी टस से मस नहीं होती और जस की तस रहती है। पर सरकार ने भी तो हौसला
कहां छोड़ा है।
हिन्दी के महत्व
को लेकर चंदूलाल जी के मन में जो शंकाएं उठती हैं वो सब बेबुनियाद हैं। हिन्दी
भारतीय समाज का कितना मनोरंजन करती है उन्हें ख़बर ही नहीं है। इस साल हमारे यहां
हिन्दी पख़वाड़े में हिन्दी अधिकारी शब्द ढूंढ कर लाया- यंत्रणा और क्रंदन। इन्हें
लिखने और इनका उच्चारण करने में प्रतियोगियों को काफ़ी मात्रा में यंत्रणा हुई और
एकाध क्रंदन की स्थिति को भी पंहुचे, परन्तु अंततः सबका खूब मनोरंजन हुआ। ही-ही,
ठी-ठी का शोर इस कदर गूंजा कि निर्णायक महोदय को ‘सायलेंस’ का उदघोष करना पड़ा।
दफ़्तर के बाहर यानी फ़िल्मों और उनके गानों को ही लीजिये, वहां तो हिन्दी को आगे
बढ़ाने के प्रति इतनी ललक है और मौद्रिक प्रोत्साहन भी इतना है कि हिन्दी में रचा
ही नहीं जा रहा बल्कि हिन्दी को भी रचा जा रहा है। ये मौलिक रचयिता जाने कहां-कहां
से थीमें ला-ला कर हिन्दी में ढाल देते हैं। मज़ा ये कि फिल्म का नाम तो इंग्लिश या
जाने कौन सी भाषा में है, पर अंदर देखो तो हिन्दी ही हिन्दी भरी पडी है. हीरोइनें
तक हिन्दी ही बोलती हैं. टीवी तो पूरी की पूरी हिन्दी के ही रंग में रंगी हुई रहती
है। सीरियल तो लगता है, हिन्दी में ही संभव हैं और समाचार-चैनलों में जिस वक़्त
समाचार आया रहा होता है हिन्दी में ही आता है. बाक़ी इन चैनलों की असली चीज़ यानी
विज्ञापन भी हिन्दी जैसी किसी भाषा में ही
होते हैं. हिन्दी का महत्व नहीं होता तो बैंक वगैरह में यों थोड़े ही लिखा जाता कि व्हां
चैक वगैरह हिन्दी में स्वीकार किया जाता है।
चंदूलालजी अक्सर
वही पुराना राग छेड़ देते हैं कि जबतक हिन्दी अर्थशास्त्र से नहीं जुड़ेगी, आगे नहीं
बढ़ेगी। मैं इससे असहमत होने की भिक्षा मांगता हूं (अंग्रेज़ी मुहावरे के इस बेजगह,
पर सटीक प्रयोग पर लगे हाथों क्षमा भी मांगता हूं). कहां नहीं जुड़ी है हिन्दी
अर्थशास्त्र से? हर जगह तो ये इस्तेमाल हो रही है। ये निश्चय ही एक इस्तेमाल की
चीज़ है। बाज़ार में जहां-जहां इसके इस्तेमाल से फ़ायदा होता है, ख़ूब इस्तेमाल की
जाती है। सरकार की अनुवाद फ़ैक्टरी, सिनेमा और सिरीयल, विज्ञापन और हर तरह की
लेन-देन में, किसान-मज़दूरों से काम लेते हुए, लतीफ़े सुनाते और गालियां बकते हुये
हर जगह हिन्दी ही तो काम आती है। भ्रम केवल इस वज़ह से पैदा होता है कि हिन्दी
माध्यम नहीं आइटम के तौर पर इस्तेमाल होती है। यहां आइटम से अर्थ मुंबइया भाईलोगों
के उस संबोधन से न लें जो वे सुन्दर कन्याओं के संदर्भ में करते हैं। तो
अर्थशास्त्र से रिश्ता सिद्ध है न हिन्दी का। देश की आर्थिक दशा के बारे में जो
बड़ी-बड़ी बातें होती हैं वो तो इकॉनोमिक्स कहलाती है। हिन्दी के लेखक भी अभी चुके
नहीं हैं। वे टनों साहित्य रच रहे हैं जो सरकार के हिन्दी-प्रोत्साहन के हत्थे चढ़ कर
किताबों में तब्दील हो सरकार के ही मत्थे मढ़ा जा रहा है। इस युग में किताबें पढ़ी
जाकर नहीं बल्कि अपना मूल्य, बल्कि दूना-चौगुना मूल्य पाकर सार्थक होती हैं।
ज़्यादातर तो स्थिति ये रहती है कि मूल्य कागज़ और चमचमाते कवर का ही होता है, उसमें
लिखी हिन्दी का नहीं। कदम-कदम पर प्रोत्साहित होती हुई हिन्दी मजे-मजे में बिक
जाती है। इसका अर्थशास्त्र अलग ही है।
चंदूलालजी कई बार
चंडूखाने के लाल मालूम होने लगते हैं। पिछली रात हिन्दी की दुर्दशा से आगे जाकर
उन्हें हिन्दी की ‘दूर-दशा’ भी दिखाई पड़ी। बेशक सपने में। कल शाम वे हिन्दी लेखकों
की एक ऐसी गोष्ठी में शामिल हुए थे जिसमें यारों ने मरणासन्न-सी शक्ल बना कर
हिन्दी का मर्सिया पढ़ा। ये बेचारे गुट-विहीन, गॉड-फ़ादर-विहीन लेखक थे जो इस बात पर
हैरान थे कि वे हिन्दी में जाने क्यों लिखे जा रहे हैं। एक तो ‘जाने क्यों?’ जाने
क्यों?’ गाते-गाते भावुक होकर बाक़ायदा रोने भी लगा। चंदूलालजी के मर्म पर यही आघात-सा लग गया। रात को ये सपना
आया- कुछ सदियों बाद का दृश्य- अन्वेषकों को कुछ दीमकों के पेट में विचित्र से
जीवाश्म मिले हैं। एक उस जीवाश्म की छीछालेदरनुमा जांच करने के बाद हैरत से फटी
आंखों और लटपटाती ज़ुबान से कहता है कि अरे ये तो कागज़ पर लिखते हुये किसी हिन्दी
लेखक का जीवाश्म है। और अन्वेषण के बाद लम्बी चली बहस में खुलासा हुआ कि पकड़ी गई
दीमकें सरकारी पुस्कालयों की स्थाई निवासी होंगी और सारी हिन्दी पुस्तकें चट करने
के बाद पुस्कालय में ऊंघते किसी शोधार्थी लेखक पर ही जीभ फिरा दी होगी। चंदूलालजी
इस दृश्य से घबरा कर पीछे लौटे तो सीधे आज से सवा सौ साल पीछे गिरे और बनारस के
घाट पर भारतेन्दु को एक दोहा रचने की जद्दोज़हद में देखा। अंततः दोहा यों बना- “निज भाषा को
क्षति में ही सब उन्नति को मूल, बिनु अंगरेज़ी-ज्ञान के जीवन होत फ़िज़ूल!” चदूलालजी ने
थोड़ा और ग़ौर फर्माया तो पाया कि वहां भारतेन्दु के बदले राजा हरिश्चन्द्र सपत्नीक
श्मशान घाट पर फटेहाल बैठे हैं। पत्नी पुत्र रोहिताश्व को ‘विश्वामित्र
इंग्लिश स्कूल’ का यूनीफ़ार्म पहना रही है। अपने स्कूल में एडमिशन के वक़्त
विश्वामित्र ने डोनेशन में हरिश्चंद्र का पूरा राज-पाट वसूल कर उन्हें श्मशान से
सटी झोंपड़-पट्टी में शिफ़्ट होने को मज़बूर कर दिया है। श्मशान के भीतर दिन-दहाड़े
कुछ आधुनिक किस्म के भूत-पिशाच अंग्रेज़ी गानों की धुन पर नाच रहे हैं – हालांकि एक
हिन्दी में ‘रैप’ कर रहा है- हम काले हैं तो
क्या! इंग्लिशवाले हैं…। बीचों-बीच हिन्दी की चिता जल रही है।
अब ये तो इंतिहा
हो गई। चंदूलालजी के इस संगीन सपने पर क्या टिप्पणी की जाये। हिन्दी के प्रति मेरे
मन में अभी अपार आशाएं और उत्साह है। आशंकाएं भी हैं पर उन्हें मैं ये सोचकर परे
खिसका देता हूं कि जिस चीज़ को प्रोत्साहित किया जाता है वो संभावनाशील होती है।
चंदूलालजी की व्यंग्यकार आत्मा हिन्दी की
स्थिति पर लाख तड़फड़ाये, हिन्दी तमाम प्रोत्साहनों की लाठी पकड़े धीरे-धीरे पर
निश्चित रफ़्तार से आगे ही बढ़ रही है। अब तक तो बाधक तत्वों को फलांग जाने में
सक्षम दिख रही है, आगे जो होगा, देखा जायेगा। सरकार तो है न!
Comments
'दुर्दशा और दूर-दशा '
शब्द से नए शब्द की उत्पत्ति बिलकुल सटीक अर्थ में...
वाह:)
सशक्त आलेख!
आपकी पुस्तक तक पहुँचने का सौभाग्य देखें कब मिलता है, तब तक हम दोनों यहीं आपकी प्रवाहपूर्ण लेखनी का आनंद लेते रहेंगे!
सादर चरणस्पर्श प्रणाम!