आज कुछ मौसम का मिज़ाज और ज़िन्दगी के फलसफे को जोड़ कर देखने की कोशिश

एक मध्यमवर्गी मौसम

हवा में खुनकी है. पश्चिमी गडबडियों और पूरबी छेडखानियों से मौसम खामख्वाह खुशगवार हो रहा है. यों दिन भर मौसम कैसा था ये देखने को फुर्सत थी मिज़ाज. शाम ढली तो मौसम और घर दोनों ध्यान में आये. अच्छे मौसम को सेलीब्रेट करने का आम-तौर पर एक ही तरीका आता है मुझे, पर आज घर पर गुरु-वार का शाकाहार और शुष्क-दिवस लागू है. इसलिए मैं साग-पात खाकर ठंढा पानी पी चुका हूँ और सीधा बिस्तर पर गया हूँ.

मौसम की कारगुजारियों का असर बेडरूम तक भी छाया है. बीबी ने खिड़की खोल दी है जिससे होकर एक ठंढी चुभन से भरी हवा के साथ-साथ कुछ मच्छर भी प्रवेश कर गए हैं. मैं तेज़ पंखा चला कर आगे की सम्भावनाओं पर आपकी कल्पना और मच्छरों की उन्मुक्त उड़ान दोंनों पर ब्रेक लगाने की कोशिश करता हूँ. आपकी कल्पना का तो पता नहीं पर मच्छरों के मामले में नाकामी ही मिलती है. हूँ. लेटते ही पंखे से उठा बवंडर बदन में ठंढी फुरहरी दौड़ने लगता है तो चादर ढूँढने लगता हूँ. पास ही रखी है, मिल भी जाती है और ओढ़ भी लेता हूँ. पर ओढ़ते ही उमस का अहसास होने लगता है. फिर हटाते ही ठंढ की सिहरन और मच्छरों का हमला होता है तो चादर को सर से पाँव तक तान लेता हूँ. चन्द मिनटों के बाद चादर के अन्दर फैली उमस को काटने का एक उपाय ईजाद करता हूँ और आहिस्ता से चादर के भीतर से केवल एक टांग बाहर निकाल कर उसी में ठंढक को ज़ज्ब करने लगता हूँ.

इस बार आँखें मूंदते ही मौसम की इस गर्म-सर्द चुहलबाजी और उससे जूझने के अपने पैंतरों में एक पैटर्न सा नज़र आता है. अरे, ये तो बिलकुल अपनी ज़िंदगी जैसा ही है. महीने भर की उमस के बाद अचानक एक रोज़ ठंढी हवा के झोंके-सी तनख्वाह आती है. हुमस और हौसले से भर कर मैं खर्च की खिड़कियाँ खोल देता हूँ. लेकिन खुशियों के झोंकों के बीच बिलों और कर्जों के मच्छर भी भीतर जाते हैं. कमबख्त काटते तो हैं ही, कान पर निरंतर भिनभिना कर नींद भी हराम कर देते हैं. इनसे ध्यान हटाने को सालों से मन में पलती आकांक्षाओं का पंखा चला देता हूँ. पर कुछ ही पल बाद मध्यमवर्गी मन सिहरने लगता है. तब मैं बज़ट की चादर ढूँढता हूँ जो हमेशा पास ही रखी रहती है, बस ज़रा ध्यान से हट जाती है. ये चादर चालू मुहावरे के अनुसार ही एक दम मेरे नाप की सिली गई है और आचार-संहिता के अनुसार सर तो क्या इससे पाँव भी बाहर निकालने की इजाजत नहीं. मैं चुपचाप इस चादर को अपने पूरे वजूद पर तान लेता हूँ.


पर चादर के भीतर की इस घुटन का क्या करूं? हज़ारों ख्वाहिशें मुझमें करवटें ले रही हैं. आशंकाओं का पसीना चुहचुहाने लगा है. आखिर हिम्मत कर के किसी एक ही चिर संचित इच्छा की टांग को चादर से बाहर निकाल लेता हूँ. बाहर से ठंढ सोखती इस टांग पर दूसरे खर्चों के मच्छर डंक मारने लगते हैं सो इसे किश्तों में ही बार-बार चादर से बाहर निकाल पाता हूँ. यकीन मानिए इससे पूरे वजूद को लगातार तरावट मिलती रहती है.

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