नया ताज़ा व्यंग्य
उलझे हुए तार और संस्कार
उनकी बातों से जो मैं समझा उसका
लब्बोलुवाब ये था कि शर्म एक भारी-सी चीज़ होती है जो आँखों की पलकों पर लटक कर
उन्हें झुकने पर मज़बूर कर देती है. उन्होंने बताया कि आजकल उनकी पत्नी की आँखे
बड़ी-बड़ी खुली रहती हैं और आपसी तक़रारों के वक़्त उनकी आँखों से दो-दो हाथ करती रहती
हैं. इससे वे इस नतीजे पर पहुँच गए हैं कि पत्नी की आँखों की शर्म मर गई है या कम
से कम वहां से हट ज़रूर गयी है.
मैं खुद शर्मिदा हुआ कि वे अपनी निजी
पत्नी की आँखों की बेशर्मी का ज़िक्र मुझसे कर रहे थे. फिर चिंता भी हुई कि स्थिति वाक़ई
नाज़ुक है, तभी ऐसा करते हुए वे खुद शर्मिंदा नहीं हुए. मुझे याद आया कि उनकी
ज़िन्दगी में ताज़ा-ताज़ा आई पत्नी इतनी झुकी-झुकी नज़रों वाली थी कि वे अक्सर गुनगुना
उठते थे – “झुकी-झुकी सी नज़र, बेक़रार है कि नहीं!” पिछले दसेक साल उन्होंने उन
पलकों में पूरे हौसले से उठकर पूरी दुनिया को नज़रें फाड़-फाड़ कर देखने का
आत्मविश्वास भरने को अपना मिशन बनाया हुआ था. अपनी संगिनी का जो अख्श उनके मन में
था वो महानगर की उस बोल्ड लड़की का था जो उन्हीं के शब्दों में लेटेस्ट फैशन में
लिपटी अपने बॉय-फ्रेण्ड के साथ ‘बिंदास’ घूमती है. उन्होंने योजना-बद्ध तरीके से
पत्नी का वार्डरोब बदला, जुबान की सफाई करवा कर अंग्रेजी की कलई चढवाई और खुले दिल
से ब्यूटी-पार्लर के बिल चुकाए. आगे सामाजिक संस्कारों के परिष्कार के अभियान चले
और पत्नी मोहल्ले की किटी पार्टियों और ऐसे ही दीगर समाजों में दाखिल हुई. ये
सुनिश्चित किया गया कि पत्नी के दिन का एक-एक पल पर्सनैलिटी के विकास में ही लगे
और जब वो शाम को घर लौटें तो दिन-भर का काम यानी हाव-भाव में फर्क साफ़ दिखे. कुछ
शुरूआती सालों तक इस वर्कशॉप का मैं भी हिस्सा रहा जब मिलने-जुलने के मौकों पर
छुई-मुई सी रहने वाली उनकी पत्नी अपने दिन-प्रतिदिन बदलते अवतारों में खुलने-खिलने
लगी थीं.
फिर एक अंतराल आ गया. सालों बाद शहर
में वापस लौटने पर मैंने उनकी पत्नी की आँखों की शर्म के गुज़र जाने की खबर सुनी तो
दुखी होने की बजाय हैरान हुआ कि वहां शर्म तो कभी मुद्दा था ही नहीं, बल्कि झुकी हुई
वो नज़रें थीं जिन्हें ऊपर उठवाने के लिए वो उन दिनों इतने उतावले थे कि बस चलता तो
पलकों को खिचवा कर भौहों से सिलवा देते. आखिर उन झुकती-उठती पलकों में ऎसी कौन सी
किरकिरी आ फंसी थी जो उन्हें चुभने लगी थी. अबकी उनकी पत्नी को जैसा मैंने देखा,
वो उनके तय किये साँचें में एकदम सटीक ढली हुई थी. बोल्ड, बिंदास तो मुझे नहीं
मालूम पर आत्मविश्वास से भरी सहज और संतुलित ज़रूर थीं. पता चला कि आत्म-निर्भर भी
हैं. तो क्या वे अपने बनाए साँचें से ही आश्वस्त नहीं थे या समय के साथ सांचे के
आयाम भी बदल गए थे.
उस शाम अपने उदास दोस्त को अपने घर
ले आया. वहां गिलास से चुस्कियां लेते हुए उन्होंने खुलासा लिया कि उनके घर में अब
एक औरत नहीं बल्कि उनके जैसा ही एक शख्स रहता है जो उन्हीं की तरह ऑफिस जाता है और
शाम को घर लौटने पर मेड की बनाई चाय पीता है. उन्हीं की तरह बिखरा-बिखरा और
उनींदा-सा रहता है. कभी कुछ माँगता नहीं लेकिन किसी बात पर टोकने पर रिएक्ट करता
है. अब वो अक्सर सपने में लाल बिंदी लगाए, काजल-भरी आँखों वाली, साडी में लिपटी और
चूड़ियों की छन-छन के साथ चाय का प्याला बढ़ाती एक छवि को देखते हैं.
उनकी बेखुदी के बीच ही मैं हल्का
होने को उठा और लौट कर पाया कि वे अपनी गर्दन में लिपटी कुछ चीजों से उलझे हुए
हैं. मदद के इरादे से हाथ बढाया तो उन्होंने झटक दिया. गौर से देखा तो वे आपस में
उलझे हुए कुछ धागे थे जिन्हें वे जितना सुलझाते, और उलझते जा रहे थे. एक तुलसी की
माला, हनुमानजी और साईँ बाबा के लॉकेटो के धागों के साथ मोबाइल से जुड़े हेड-फोन के
तार उनकी गर्दन में गुत्थम-गुत्था हो रहे थे. पुराने और नए ज़माने के संस्कार एक ही
मष्तिष्क की शिराओं में फंस गए हों जैसे और किसी एक को गले लगाओ तो दूसरा अपने-आप
साथ लिपटा चला आये.
आँखों की शर्म को लेकर उनकी तमाम
उलझनों का राज़ मुझे एक-दम समझ में आ गया.
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