एक व्यंग्य रचना - आदमी के दोमुहे चरित्र पर..


आत्मालाप
-कमलेश पाण्डेय

…आ रही हूं न! ये दूधवाला भी कंबख्त… दो मिनट रुक नहीं सकता, टूट ही पड़ता है कॉल बेल पर। चलो ये तो निबटा।  अरे! आठ बज गये…अभी तक पता नहीं निकम्मी का। कुछ बता के भी नहीं गई कि आयेगी कि नहीं आज। चलो देख लूंगी …आज घर पे ही हूं।

…नहीं जाना ऑफ़िस आज तो। छुट्टी नहीं देगा…देखती हूं क्या कर लेगा। कहता है रोज़ लेट आती हैं आप्। अब घर के काम निबटें तभी तो निकलूं। लेट कौन नहीं आता ऑफ़िस! वो सीमा चुघ को तो कभी नहीं कहता कुछ- एक बार मुसकरा दे बस, फिर तो बारह बजे आना भी माफ़। मेरे ही पीछे जाने क्यों पड़ा रहता है। कोई भी वज़ह बताओ, बच्चा बीमार है, सास-ससुर आ गये, स्कूल की वैन नहीं आई, सुनकर यही कहेगा कि आप तो रोज़ एक नई कहानी गढ़ लाती हैं। अब रोज़ एक ही वज़ह तो बताई नहीं जा सकती छुट्टी की। किटी के लिये लेनी हो क्या कहूं… सीधे कह दूं तो देगा छुट्टी? कल तो हद ही कर दी उसने। सी एल ख़त्म हो गये मेरे! कैसे? सीमा के तो महीने के पांच हो जाते हैं। बस मेरी ही हर छुट्टी का हिसाब रखना आता है। कहने लगा विदाउट पे होगी मेरी अगली छुट्टी! हुंह! देखती हूं कैसे काटता है सैलरी। मेरी छुट्टियां थी ले लीं मैंने, कोई खैरात में तो देनी नहीं थी उसको। साल- दो-साल से हालात ही ऐसे चलते रहे। मुन्ना हुआ तो चलो सरकार ने छः महीने तो यों ही दिये, फिर उसके देखभाल के लिये भी साल भर की और मुफ़्त की मिल गई थी, अब इतने दिन घर बैठो तो क्या जी करेगा दफ़्तर जाने को। छुट्टियां थीं ख़ाते में …ले लीं…अब ख़त्म हो गईं तो क्या रोज़-रोज़ पिसते रहेंगे दफ़्तर में…

…अरे! ये कामवाली तो अभी तक नहीं आई। महीने की एक छुट्टी तो निबटा चुकी है। आज ग़ायब हुई तो कटेंगे पैसे। इसका तो ये रोज़-रोज़ का हो चला है। क्या सटीक बहाने बनाती है- पति ने रात को पीट दिया, बेटा घर से भाग गया, पुलिस रात घर पे आ गई! जाने क्या-क्या। सुबह सात का तय किया था, कभी सवा सात से पहले नहीं आई- आज तो साढे आठ बजने वाले हैं…अब तो आ भी गई तो आधे दिन के पैसे ज़रूर काटूंगी…

…ऐसा बॉस भगवान किसी को न दे। बस काम के पीछे पड़ा रहता है। काम ही करना हो तो कोई सरकारी नौकरी में जाता है! कहता है- आपको कोई काम दूं तो यही कहती हैं कि ये काम मेरा नहीं है… जैसे दफ़्तर के सारे काम मेरे ही ज़िम्मे हों। दुनिया भर के काम अपने सिर पर ओढे रहेगा। अपने बॉस के गुडबुक में जो रहना है। हमेशा जल्दी में रहेगा। दिन भर में आठ-दस डिक्टेशन…उफ़! उधर रेखा पॉल का बॉस- बस एकाध डिक्टेशन, सारे दिन खुद ही फ़ोन पर लगा रहता है या अपनी सीट से ग़ायब। ग्यारह बज़े आई और साढे चार निकल गई। जब चाहे छुट्टी ले लो! इधर मेरे वाला कहता है- करती क्या रहती हैं आप… सो स्लो…एक पेज़ टाइप करने में दो घंटे! अब काम के बीच किसी अपने का फ़ोन आ जाये तो मना कर दूं बात करने से! ऊपर से कहीं एकाध गलती हो जाये  तो बस शुरु हो जाता है- क्या एक सेन्टेन्स भी सही सही टाइप कर सकती हैं आप! टॉन्ट करता है! उस रोज़ सबक सिखाने को जो काम करके दिया बच्चू को तो करेक्शन कर-कर के नोट-शीट लाल कर दी थी। चूं नहीं बोला उस दिन… यही ईलाज़ है इनका तो…।

…आज तो गई ये! ऐसी निकम्मी देखी नहीं कभी! काम भी क्या करती है, लीप देती है सब कुछ। कोई काम करने को बोलो यही कहेगी कि मेमसाब ये तो तय नहीं हुआ था। जैसे सब कुछ तय कर के ही आई है दुनिया में। बरतन-झाड़ू-पोंछे के सिवा कुछ भी नहीं करेंगी महारानी। कभी कुछ बाहर से लाने को कह दूं तो झट कहेगी ये मेरा काम नहीं है मेमसाब! और काम भी कैसा करती है- बरतन सारे जूठे- हमेशा खड़खड़- भड़भड़ सब जल्दी-जल्दी समेटने के चक्कर में। पोंछा तो ऐसे लगायेगी जैसे पूरा घर गोबर से लीप दिया हो। जाले साफ़ करने को कहो तो सारे दीवारों पर ही पोत देगी। उस दिन कहा कि एक दिन भी तो सफ़ाई ठीक से कर जा तो गुस्से से झनकती हुई तीन गिलास तोड़ गई। ऊपर से ये नखरे…

…इस आदमी की बीबी इसे कैसे झेलती होगी! ज़ुबान से नोच खाता होगा उसे, बात-बात में हुक़्म चलाता होगा, रसोई में भी टांग अड़ाने से बाज नहीं आता होगा…ये जल गया…उसमें नमक का ढेर पड़ा है। उसके सचमुच के सरदर्द को नौटंकी बताता होगा। पर सोनिया तो कहती थी कि अपने घर में तो चूहा है बिल्कुल, बीबी ही हर वक़्त धमकाती रहती है। हां! तभी तो दफ़्तर में ही पड़े रहने की फ़िराक़ में रहता है। देर शाम तक बैठा न जाने क्या करता रहेगा…मेरा तो सही टाइम पर निकलना भी दूभर कर दिया है जालिम ने। कहेगा- छः बजे तक ऑफ़िस का टाइम है, तब तक तो रुकिये! चार बज़े तक भी नहीं रुकी इसके आने के पहले कभी फ़िस में। तब तक तो दिमाग़ बंद पड़ जाता है, उंगलियां सुन्न हो जाती हैं। अब तो दिन में चार-पांच ही बार कैंटिन जा पाती हूं…चार बज़े के बाद तो वैसे ही वहां जाने का कोई मतलब नहीं, और सब तो जा चुकी होती हैं। गप्पों के बिना चाय कैसी? उफ़! कैसी मुसीबत है!…

…अरे लो! ये तो कर ही गई छुट्टी आज। महीने में दूसरा दिन! एक दिन बच्चे की बीमारी बोलकर घंटा भर लेट आई थी और एक और दिन जब बुख़ार में ही चली आई थी और इंफ़ेक्शन के डर से मैंने खुद ही बस झाड़ू-पोंछा-बर्तन करवा कर भगा दिया था। अरे हां! उस रोज़ उसके रिक्शावाले पति को पुलिस ने पीट-पाट दिया था तब भी तो अस्पताल के बहाने जल्दी चली गई थी। सबका हिसाब करती हूं –आने दो कल! काम में बिल्कुल पंक्चुअल नहीं …बस वक़्त पर पैसे चाहिये…

…क्या करूं मगर! पति हो तो तलाक़ की भी सोचूं। ये तो कल पक्का मीमो देगा। जवाब-तलब करेगा…शिकायत कर दूं बड़े साब से!…पर ये तो पहले ही चुगली कर चुका है मेरी…आज तो और आग लगाई होगी…। वो सुनेंगे मेरी! उफ़! कैसी मज़बूरी है, कोई चैन से नौकरी भी नहीं कर सकता…कल तो माफ़ी ही मांगनी पड़ेगी पक्का। कितने दिन बैठा जा सकता है ऐसे! नौकरी थोड़े ही गंवानी है…।

…चलो इसकी एक रोज़ की छुट्टी और सही! मज़बूरी में नख़रे सहने ही पड़ते हैं सबके। ये सब की सब बहुत ढीठ हो गई हैं आजकल। कुछ कह दिया तो पैर पटकती चल देगी…रखो अपने पैसे अपने पास और काम भी। पैसे भी आख़िर देने ही पड़ेंगे। क्या करुं…इसके बिना काम भी तो नहीं चलता। ऑफ़िस आने-जाने के बाद क्या चुल्हा-चक्की में पिसूं! फिर ये अगर गई तो इस घर को तो बदनाम कर के रख देगी…दूसरी को आने भी नहीं देगी। सब एक ही थैली की चट्टी-बट्टियां हैं। सब कुछ आंखों के सामने होता देख चुप रह जाना पड़ता है इस ज़माने में। कर भी क्या सकती हूं आख़िर!!

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