कॉर्पोरेट अभिमन्यु- आज के कॉर्पोरेट दौर के अभिमन्यु कैसे व्यूहों में घुसते और कैसे उन पर विजय पाते हैं, इसकी एक कल्पना की थी... "व्यंग्य-यात्रा" पत्रिका में प्रकाशित ये व्यंग्य ब्लॉग पाठकों के लिए...


कॉर्पोरेट अभिमन्यु



अट्ठाईस साल पहले एक परम महत्वाकांक्षी पति-पत्नी के आपसी संयोग से उसके इस पृथ्वी पर आने की सम्भावना बनी. अर्जुन सिंह उन दिनों एक प्राइवेट कंपनी में अपने भविष्य को उज्जवल बनाने हेतु तपस्या-रत थे. वे सभी प्रकार के क्वालीफिकेशंस से युक्त कुछ नई विधाओं में पारंगत होने हेतु दिन-प्रतिदिन कोई नया कोर्स ज्वाइन कर लेते. क्रमशः पदोन्नतियां पाते और इस क्रम में कई व्यूहों को भेदते उन्होंने अपना लक्ष्य अर्थात कंपनी का वाइस प्रेसिडेंट का पद प्राप्त कर लिया. कालान्तर में उन्होंने इस कंपनी को अंगूठा प्रदर्शित कर अपनीइन्द्रप्रस्थ प्राइवेट लिमिटेड कंपनी स्थापित कर ली. अपने इस दिव्य कैरियर के विविध चरणों को सात व्यूहों के मॉडल में ढाल कर उन्होंने उसे चक्रव्यूह की संज्ञा दी और इसे भेदने की विधियों को अपने नाम से पेटेंट करा लिया. यही पराक्रमी पुरुष एक रात्रि अपनी गर्भवती पत्नी से समक्ष इस मॉडल का वर्णन कर रहा था जब परम्परानुसार ही ऊब से जम्हाईयाँ लेती उनकी पत्नी सुभद्रा निद्रा की गोद में समा गईं और ये जानने से वंचित रह गईं कि व्यूह के भीतर से सारा ज्ञान और अनुभव बटोर कर कैसे बाहर आया जाय और उन्हीं गुरों से स्वयं अपना बिजनेस साम्राज्य कैसे स्थापित किया जाय.

गर्भ में उकडूँ बैठा अभिमन्यु सब सुनता रहा. कहानी अधूरी छूटने पर उसने मुंह बिचकाया और बुदबुदाया कि आने वाले परा-आधुनिक युग में अपना एक्जिट फार्मूला वह खुद बना लेगा.

पहला व्यूह तो उसने उसी क्षण भेद लिया जब सामर्थ्यवान उद्योगपति घराने में अवतरण लिया. आस-पास घात में बैठे कुपोषण और संक्रामक रोगों के जीवाणु उसे छू भी न पाए. पौष्टिक आहार खा-खाकर एवं अल्पायु से ही विशेषज्ञों यथा डाईटीसियन, फिजियो-ट्रेनर, जूडो-कराटे, तैराकी आदि के महारथियों की देख-रेख में तीन वर्ष की आयु में ही वह एक परम बलशाली बालक बना. इसी आयु में विविध प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों जैसे लैप-टॉप, आई-पौड, फोन व् गेम-सेंटर आदि पर क्रीडा करते हुए उसकी बुद्धि अपरिमित होती गई. इन संयंत्रों पर वह नाना प्रकार के शस्त्रों से विचित्र किस्म के शत्रुओं से युद्ध करता और उँगलियों के संचालन मात्र से ही सदा विजयी होता. उसके माता और पिता अपने व्यक्तिगत युद्धों में व्यस्त रहते थे जिससे उसके इस स्वाध्याय और शस्त्र शिक्षा में कोई व्यवधान नहीं आया. उस नन्हीं-सी आयु में उसने नियमित दस-दस घंटों तक एकाग्र होकर इस युद्ध का अभ्यास किया जिसके परिणाम-स्वरूप अल्पायु में ही उसे अपनी आंखों पर कांच के कवच लगवाने पड़े.

दूसरा व्यूह उसने अपने पिता के विशाल बैंक-बैलेंस तथा ईष्ट-बंधुओं के ईश्वरीय संपर्कों की सहायता से उस क्षण भेद डाला जब आर्यावर्त के श्रेष्ठतम पाठशालाओं  में से एक का द्वार उसके लिए खुल गया. यहाँ उसे एक ऐसी भाषा में शिक्षा दी गई जो समस्त आर्यावर्त में एक प्रभावी अस्त्र का काम करती थी, अर्थात इस दैवी भाषा में बोलते ही संबोधित सम्मोहित हो जाता था. आगे जीवन के हर महायुद्ध में काम आने वाला समस्त ज्ञान-विज्ञान उसे कंठस्थ करा दिया गया. इस व्यूह में वह दस वर्षों तक रहा और सामर्थ्यशाली पुरुषों के करने योग्य हर कर्म में निष्णात हुआ. शिक्षा के अलावा परीक्षा-चौर्य-कला, मदिरा-औषध-सेवन, प्रेम-क्रीडा आदि का भी अभ्यास किया और अंततः दिव्य शक्तियों से युक्त होकर अगले व्यूह में प्रवेश करने को उद्धत हुआ.

बोर्ड-परीक्षा नामक एक दोहरा व्यूह उसके लिए किंचित दुरूह सिद्ध हुआ. यहाँ विद्यालय में काम आने वाले विविध कवच यथा पिता का धन और यश, शिक्षको को आतंकित रखने के गुर आदि काम न आये. परीक्षा में उतीर्ण होने की ललित कलाओं के प्रयोग से वह व्यूह का पहला चरण भेदने में सफल रहा किन्तु दूसरा चरण पार करते हुए मैथ्स नामक बाण से आहत हो कर वह गिर पड़ा. तब उसके मामा ने अपनी दिव्य शक्तियों के साथ प्रकट हो उसकी अंक तालिका बदलाव कर उसे चैतन्य किया. कुछ माह तक अपने मित्रों के साथ अपनी प्रिय क्रीडाएं कर स्वास्थ्यलाभ करता हुआ वह अगले व्यूह की ओर बढ़ा.  

अगला अर्थात चौथा व्यूह कम्पटीशन-व्यूह था, जहाँ उसे अकेले ही युद्ध करना पड़ा. इस विकट युद्ध के लिए उसके पास कोचिंग व् कुंजी-पुस्तिकाओं जैसे दिव्यास्त्र थे. वह मजे-मजे में युद्ध करता, जब जहां से मिले अस्त्र उठाता, सह-महारथियों को लंगडी मारता अंततः व्यूह को भेद गया. बाहर निकालने के द्वार पर उसे बी-टेक की डिग्री नामक एक महा-अस्त्र मिला जो आगे चलकर अगला व्यूह भेदने में बहुत काम आया. इस व्यूह भेदन का मर्म ये है कि यद्यपि अभिमन्यु व्यूह में अकेले घुसता और अकेले ही लड़ता प्रतीत होता है, परन्तु उसके पिता व् स्वजन अपनी दिव्य-शक्तियों और कंपनियों सहित उसे अपने प्रभाव-क्षेत्र में लिए खड़े रहे हैं. आगे वे अपने-अपने युद्धों में सब कुछ अर्थात साम्राज्य, रथ, मुद्रा-कोष आदि गँवा बैठे थे और कुरुक्षेत्र से बाहर बैठे सुस्ताते रहे.

जॉब सर्च नामक पांचवां व्यूह सबसे कठिन व्यूह था. प्रवेश के दस-दस द्वार थे पर खुलता एक भी न था. अभिमन्यु पहले हताश हुआ, पर वीर तो वह था ही, एक और दिव्यास्त्र पाने के लिए तप करने लगा. अंततः उसे एमबीए नामक शास्त्र पढकर एक महाअस्त्र प्राप्त हुआ जिसे चलाते ही एक छोटे-से द्वार की एक झिर्री खुल गई. वह भीतर कूद पड़ा. यहाँ से एक सतत युद्ध आरम्भ हो गया. उसे चारों ओर से ऋण शत्रुओं ने घेर लिया. फ़्लैट, कार, इन्सुरेंस, गर्लफ्रेंड, पार्टी अर्थात जीवन-रक्षा के हर दांव के लिए गए ऋण उसकी वीरता की परीक्षा लेने लगे. युद्ध चलता रहा और वह मात्र अभ्यासवश ही व्यूह में अपने अस्त्र-शास्त्र घुमाता अपनी धुरी पर नाचता रहा. वह अपने शस्त्रों से जितनी समस्याओं का सर काटता उससे कुछ अधिक और समस्याओं की नई अक्षौहिणी सेनाएं सामने आ खडी होतीं. धीरे-धीरे वह आशवस्त-सा हो चला और व्यूह को अपना घर ही समझाने लगा.

एक दिन उसे पिता की वाणी याद आई और छठे व्यूह की खोज कर उसे भेदने की अन्तः-प्रेरणा हुई. उसने पूरी शक्ति लगा कर कंपनी के टॉप-मैनेजमेंट नामक छठे व्यूह में सेंध लगा दी. यहाँ घुसते ही वह घनघोर महारथियों के संसर्ग में आ गया. इन महानुभावों ने उसकी नित्य-प्रति परीक्षा लेनी शुरू की. उसे वहाँ रोज टार्गेट नामक मछली की आँखें दी जाती जिसमें बेधने में वह दिवा-रात्री लगा रहता. इस व्यूह के महारथियों ने आगे चलकर विकट व्यूहों की रचना कर उसे धराशायी करने का प्रयास किया, किसी ने उसके पाद खींचे तो किसी ने पीठ में खड्ग भोंका. पर अभिमन्यु भी क्या कम था, सबकी चालें काटता अद्भुत वीरता और साहस के साथ भीतर घुसता ही चला गया.

आखिर उसका अंतिम लक्ष्य अर्थात अपनी कंपनी नामक सातवाँ व्यूह प्रकट हुआ. छठे व्यूह पर पाद-प्रहार कर वह अपने सभी दिव्यास्त्रों और संचित अनुभवों के साथ उसमें प्रविष्ट हो गया. यहाँ उसे भयाक्रांत करने का प्रयास करते टैक्स, घाटा, प्रतिद्वद्वी, ट्रेड यूनियन आदि अनेक शत्रुओं की सेना मिली जिनसे निरंतर युद्ध करता हुआ वह उस ओर बढ़ा जहां व्यूह का केन्द्र था. वह बारम्बार विजयी होता प्रतीत होता पर उसी क्षण कर्ज और घाटों की एक भारी सेना आक्रमण कर देती. लड़ता-लड़ता वह व्यूह के छोर तक आ पहुंचा. पर बाहर निकालने का कोई मार्ग न था. वहाँ मात्र एक डेड एंड था.

पूरे कारपोरेट-क्षेत्र में मंदी छा गई थी. निराशा की आंधी चल रही थी. शेयर धराशायी हो यत्र-तत्र लुढके हुए थे. शत्रु उस पर इस प्रकार छा गए थे जैसे सूर्य किरणों पर मेघ. अभिमन्यु ने पिता का स्मरण किया पर चक्रव्यूह भेदन का सूत्र तो वहाँ कभी था ही नहीं. अपने कारपोरेट अनुभव और सम्पूर्ण आत्मविश्वास को खंगाल कर भी उसे बाहर निकालने का कोई मार्ग नहीं मिला. अंतत उसने ब्रम्हास्त्र का प्रयोग करने का निर्णय लिया. उसने एक जोर की हुंकार भरी और स्वयं को दिवालिया घोषित कर दिया.

चक्रव्यूह का द्वार एक दम खुल गया. लगे हाथों चक्रव्यूह भेदन का एक नया कीर्तिमान बना जो  उसके नाम हो गया. बाहर आते ही इन्द्रप्रस्थ की सरकार ने हश्रोल्लास से उसे गोद में उठा लिया और उसकी चिकित्सा और सेवासुश्रुषा में लग गयी.

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