आँधियों से कहो औकात में रहें..

तूफ़ान के बारे में ये अफ़वाह रहती आई है कि ये एक सन्नाटे के बाद आता है. तूफ़ान की छोटी बहन आंधी भी कुछ यों ही मज़े लेते हुए आती है. शांत- चुपचाप पड़े रहने के बाद एकदम झकझोर दिया जाना चौंकाता है- थ्रिल देता है. इट्स एक्साईटिंग यू नो! मंद-मंद रूटीन-सी सीधी चलती हवा गोल गोल चक्रवात में घूमती तेज़ रफ़्तार हवा के सामने बेमतलब-सी है. आदमी को भय का रोमांच पाने का सबसे सस्ता-सुन्दर और टिकाऊ साधन है आंधी-तूफ़ान.
प्रकृति अपने सर्व-समभाव प्रकृति के तहत धरती पर तापमान और हवा का दबाव एक–सा रखने के इरादे से गुमसुम गर्म इलाकों में तेज़-रफ़्तार ठंढी हवाएं भेजती है. इसी से प्रेरणा लेकर हमारे देश की सरकारें ‘सबका साथ सबका विकास’ जैसे नारा लगा कर ‘विकास की आंधी’ चलाती रही है. कुदरती आँधियों में कुछ तोड़फोड़ मचती है, चंद पेड़ गिरते हैं और गरीबों की बस्ती में छप्पर उड़ जाते हैं. उधर जब विकास की आंधी चलती है तो किसी इलाक़े का समूचा भूगोल इतिहास में बदल जाता है. गरीबों के छप्पर दीवारों समेत उड़ जाते हैं और पेड़ तो झुण्ड के झुण्ड नक़्शे से ही ग़ायब हो जाते हैं. ऎसी आँधियों के बाद जब गर्द बैठती है तो केवल बड़ी और भारी-भरकम चीजें ही चमकती नज़र आती हैं.
आंधी-तूफ़ान अब मानवीय-भविष्यवाणियों के अंतर्गत आ चुके हैं. इनकी अनिश्चितता में छुपा भय रोमांच में बदल गया है. कुदरती आंधियां अब भी अक्सर इन भविष्यवाणियों को मुंह चिढ़ा कर मनमानी कर जाती हैं, मसलन बताये गये वक़्त से कुछ देर से आना, आना ही नहीं या रफ़्तार में कुछ कमी-बेशी कर जाना. पर घोषित-प्रायोजित विकास की आंधियां स्पष्ट लक्ष्य और गति के साथ उतारी जाती हैं. कब आएगी, कहाँ आएगी और कितने जोर से आएगी- सब लिखित में मिलता है. एकदम सौ टका खरी भविष्यवाणी. फिर तय दिन आता है, आंधी के हलके-हलके अहसास के साथ दिन बीतने लगते हैं. यहाँ-वहां नन्हें-नन्हे बवंडर भी उठ लेते हैं और कुछ चीजें बनती-बिगड़ती दिखने लगती हैं. बिगड़ती कुछ लक्षित बनी-बनाई चीजें हैं और बनती वही सारी शै हैं जिनका आंधी लाने वालों से कोई सीधा या टेढा वास्ता होता है. पर परिणाम बड़े दूरगामी स्तर के होते हैं-मसलन देश में उगाहा गया फंड उड़कर स्विटज़रलैंड के लाकर में जा गिरता है. आम आदमी के जेब से पत्तों की तरह उड़ कर रूपये बड़ी-बड़ी कंपनियों के कुओं में गिरने लगते हैं. अक्सर किसी पिछड़े इलाके में खड़े होने की कोशिश करता कोई पुल या इमारत एक सुन्दर कोठी में तब्दील होकर किसी पॉश इलाक़े में जा खडा होता है.
कुदरती आंधी और सरकारी आंधी में एक बड़ी समानता ये है कि दोनों के अंत में खबर एकसी ही बनती है- गरीबों के हताहत और बेघर-बेहाल हो जाने की. पर फर्क भी है कि जहां असली आंधी खुली आँखों के सामने सारा तांडव करती है, विकास की आंधी  झांसों और बहकावों की धूल तमाम आँखों में झोंक कर धुंधलके में ही सारा खेल संपन्न कर लेती है. ललकार कर ‘आँधियों से कहो औक़ात में रहें...”  वगैरह कहते फिरने वाले लोग भी आँखे मलते रह जाते हैं.
शायद अब वक़्त आ गया है कि हम आँधियों के बारे में बरगलाने वाली भविष्यवाणियों से उपजे डर से रोमांचित होने की बजाय उनके प्रभावों का पहले से आकलन कर रखें, उनसे जूझने के उपाय ढूंढ रखें और उनके गुजर जाने के बाद उनके नतीजों को याद रखते हुए आने वाली आँधियों से लड़ने की तरक़ीबें ईज़ाद करें.

Comments

Popular posts from this blog

एक था गधा उर्फ़ शरद जोशी के नाटक में हम

प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका "कथाक्रम" के ताज़ा अंक में व्यंग्य के वर्तमान परिदृश्य पर मेरा एक आलोचनात्मक आलेख, जो हिंदी व्यंग्य के स्वरूप, व्यंग्य लिखने का कारण और एक समालोचक के तौर पर हिंदी व्यंग्य से मेरी आशाओं आशंकाओं का संकलन भी है.

यात्रा वृत्तांत लिखने का शौक़ उतना ही पुराना है, जितना यात्रायें करने का। कादम्बिनी के राजीव भैया ने ,मुझे लक्षद्वीप की यात्रा पर एक लिख लाने को कहा। तस्वीरें भी मंगवाईं। फिर इसी माह पत्रिका के पर्यटन विशेषांक में प्यार से छापा। यहाँ ब्लॉग पर उन्हीं शब्दों के साथ कुछ और तस्वीरें जोड़ कर ये यात्रा वृत्तांत प्रस्तुत है।