माँ

पांच बच्चों की रोटी, कपड़े, नींद, सेहत, पढ़ाई, संस्कार, कैरियर और एक मुकम्मल इंसान बनाने की ज़िम्मेदारी से लदी फदी माँ कब अपने समाज और परिवेश में प्रवेश करती और वहां भी खुशियाँ बाँट कर सबके दिल में जा बैठती, मैं समझ नहीं पाता था. वो पढ़ती-लिखती, तीज-त्योहारों पर मेहंदी-महावर लगाकर सुरीले गीत गाती, परम्परा की कलाओं से घर सजा देती और हर छोटे बड़े मौके पर कुछ ख़ास बना-रच कर वह दिन उत्सव सा कर देती.
अपने परिवार और रिश्ते-नातों की खुशी-गमी से बचा वक़्त बेखटके कालोनी के लोगों में बांटती. वक़्त ही नहीं, पकवान और किस्से भी. उसके दही बड़े और मालपुए चखने को कतारें लग जाती, जो होली पर वो पूरी रात कडाही चढ़ा कर अकेले ही बना लेती. व्रतों त्योहारों को तो वो सामूहिक उत्सवों में बदल देती. छठ पर्व पर घाट जाते हुए उसके साथ पूरी कालोनी जुलूस की तरह चलती थी, और तीन दिन तक लोगों से भरे घर में शादी-ब्याह सा माहौल बन जाता था.
आँखों में बच्चों सी निश्छलता और कुछ नया जानने बूझने का कौतूहल, बात बात में छलक उठना। गर्मी की दुपहरियों में हमारे ताश की नियमित पार्टनर और गप्पों की असीम श्रृंखला की सबसे ज़ुरूरी कड़ी। हमारी दोस्त, हमराज़ और मसीहा।
घोर पारंपरिक संस्कारों वाले परिवार की रुढियों में बंधी माँ की सोच उन्मुक्त उड़ाने लेती थी. बदलते वक़्त की नब्ज़ को सहजता से पढ़ लेना, रुढियों पर तार्किक ढंग से सोचना और उन्हें छोड़ देने की सलाह देने से भी नहीं चूकना. आधुनिकता का सही परिप्रेक्ष्य उसके नज़रिए में था, जिससे नए ज़माने की कैसी भी अजीब प्रवृत्तियां उसके रूबरू हों, उसे ‘शॉक’ नहीं देती थी. अपने से बहुत पढ़ी-लिखी महिलाओं से उसकी आत्मीय क़रीबी, और उनका माँ पर भावनात्मक तौर पर आश्रित होना तब हैरान करता था पर अब समझ में आता है. अपनी सहज बुद्धि और पोज़िटिव नजरिये से किसी भी उलझन की गाँठ खोलने की क्षमता थी उसमें. किसी के दुःख दर्द में बेचैन हो जाने वाली और अपनी सीमित क्षमताओं में ही सही, उन्हें दूर करने की कोशिश में जुट जाने वाली थी वो।

माँ क्या याद आने को मदर्स डे या किसी ख़ास दिन की मोहताज़ है?
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